वाराणसी , अक्टूबर 2 -- सहज, सरल व्यक्तित्व के धनी पद्मविभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र के पास संगीत को अध्यात्म से जोड़ कर प्रस्तुत करने की अनूठी कला थी।
पंडित मिश्र के निधन से आज काशी गमगीन है। उनका हर काशीवासी से एक अदृश्य, अद्भुत लगाव था। उनके खांटी बनारसीपन और अल्हड़पन उनकी बातों में झलकता था। प्रख्यात ज्योतिषाचार्य पवन त्रिपाठी ने बताया कि पंडित छन्नूलाल जी से उनके परिवार का गहरा संबंध रहा, क्योंकि उनके चाचा पंडित गोविंद नाथ त्रिपाठी ने गुरुजी से ही संगीत की शिक्षा ग्रहण की थी। इसके चलते पंडित जी का उनके घर आना-जाना होता रहता था।
उन्होने कहा " वह दिन आज भी याद है जब गुरुजी एक छोटी-सी मोपेड पर बैठकर शहर में संगीत के लिए घूमा करते थे। उनकी सहजता और सरलता का वर्णन नहीं किया जा सकता। करीब बीस वर्ष पहले मेरे आवास शिवाला में अन्नकूट महोत्सव बड़े उत्साह से मनाया जाता था। वह दृश्य आज भी ताजा है जब गुरुजी ने अन्नकूट महोत्सव के दिन राधा-कृष्ण के सामने गले में ढोलक लटकाकर भगवान के समक्ष गायन शुरू किया। वह अद्भुत दृश्य था। उनकी सहजता, सरलता और साहित्य-संगीत की धारा ऐसी थी कि ऐसा प्रतीत हुआ जैसे राधा-कृष्ण साक्षात प्रकट हो जाएंगे।"पद्मश्री संगीतज्ञ डॉ. राजेश्वर आचार्य ने बताया कि छन्नूलाल जी का जीवन संघर्ष से शिखर तक का रहा। वाराणसी में उन्होंने ठाकुर जयदेव सिंह जी से शास्त्रीय ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। शास्त्रीय गायन के साथ-साथ वे उप-शास्त्रीय संगीत और लोक विद्याओं में भी पारंगत थे। ठुमरी, चैती, दादरा में उनका बनारसी अंदाज अनूठा था। यह समय उनके निधन से शून्यता का प्रतीक बन गया है।
अधिवक्ता विवेक शंकर तिवारी ने बताया कि गुरुजी मिजाज से भी पूरी तरह बनारसी थे। उनकी मुलाकात मेरी कॉलोनी के बिल्डर सत्येंद्र सिंह जी ने कराई थी। तब मैं नई-नई वकालत करता था और रजिस्ट्री का काम भी कर लेता था। गुरुजी को एक फ्लैट की रजिस्ट्री करानी थी। उनसे मेरी पहली मुलाकात मेरे ऑफिस में हुई थी। उन्होंने पूछा, "रजिस्ट्री का फीस का लेबा। मैंने तुरंत कहा, "गुरुदेव, आप काशी की धरोहर हैं। आपके सेवा का अवसर मिलना मेरा सौभाग्य है। जो आशीर्वाद स्वरूप दे देंगे, वही रख लूंगा।" यहीं से हमारे रिश्ते की नींव पड़ी और हम एक-दूसरे के करीब आते गए।
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