नयी दिल्ली , अक्टूबर 02 -- अपनी गायकी में एक साथ अध्यात्म, श्रृंगार और लोक रस को बड़ी सहजता से समेट लेने वाले पंडित छन्नुलाल मिश्र केवल हिंदुस्तानी संगीत के पुरोधा नहीं थी, बल्कि सच्चे अर्थों में भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि थे। वह अपनी प्रस्तुतियों में एक साथ शास्त्रीय, अर्ध-शास्त्रीय और लोक संगीत का प्रवाह लाने में सक्षम थे।
पद्म विभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र का जन्म 15 अगस्त 1936 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव हरिहरपुर में हुआ। उनके दादा गुदई महाराज प्रख्यात तबलावादक थे। उनके पिता पंडित बद्री प्रसाद मिश्र भी एक कुशल तबला वादक थे, लेकिन घर की हालत इतनी खराब थी कि कभी-कभी परिवार के लिए भरपेट भोजन की व्यवस्था भी नहीं हो पाती थी। लेकिन, इस गरीबी के बावजूद पंडित जी इस मामले में भाग्यशाली थे कि उनका जन्म एक संगीतमय माहौल में हुआ था। इसी का परिणाम था कि पांच वर्ष की छोटी सी आयु में ही उनकी संगीत की शिक्षा शुरू हो गई। इस छोटी सी उम्र में ही सुबह चार बजे जगकर नित्य संगीत का अभ्यास करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। उन्हें संगीत की आरंभिक शिक्षा पिता से ही मिलती रही, लेकिन बाद में किराना घराना के प्रसिद्ध गायक उस्ताद अब्दुल गनी खान से ख्याल गायकी में प्रशिक्षण हासिल करने लगे। इसके अतिरिक्त उन्हें ठाकुर जयदेव सिंह का भी सान्निध्य प्राप्त हुआ।
मिश्र जी ने आगे चलकर अपनी गायकी में 'ख्याल' की गंभीरता को तो अपनाया ही, साथ ही उन्होंने बनारस घराने के अर्ध-शास्त्रीय चंचलता का भी सुंदरता से समावेश कर लिया। वह जैसे सच्चे अर्थों में ज्ञान के साधक थे, इसलिए उनकी खोज यहीं नहीं रूकी, वह लोक संगीत की ओर मुड़े और मिठास को भी अपनी गायकी में समेट लिया। इस तरह उन्होंने संगीत के क्षेत्र में अपनी अलग ही पहचान बना ली। वह दादरा, चैती, ठुमरी, होरी को बनारस के मंच से उठाकर अंतरराष्ट्रीय मंच तक ले गए और भारतीय संगीत को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया। वह आजीवन संगीत की साधना में जुटे रहे। आज उनके 100 से भी अधिक शिष्य भारतीय संस्कृति की इस विरासत को समृद्ध करने में अपनी-अपनी तरह से योगदान दे रहे है।
मिश्र जी बचपन से ही अपने गाँव वालों को रामचरितमानस और सुंदरकांड आदि धार्मिक ग्रंथ अपनी मधुर आवाज में गा कर सुनाया करते थे। उनका गायन इतना भावपूर्ण होता था कि श्रोता भावुक हो जाते और उन्हें प्यार से 'व्यास जी' आदि कहकर पुकारते थे। कहते हैं न कि पुत के पांव पालने में ही पहचान में आ जाते हैं, संगीत के इस सपुत को गांव वालों ने बचपन में ही व्यास की उपाधी से नवाज दिया।
जिंदगी हालांकि इतनी भी आसान नहीं थी, उस्ताद गनी खान और ठाकुर जयदेव सिंह से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उन्हें जीवन चलाने के लिए मुजफ्फरपुर में रह कर छोटे-मोटे काम करने पड़े। परंतु, जिसे स्वयं संगीत ने चुन लिया हो, उसके भीतर से संगीत की लौ लाख कठिनाइयों के बाद कैसे बुझ सकती थी। दरभंगा दरबार में उन्हें अपनी प्रस्तुति देने का मौका मिला, जहां उनकी गायकी ने लोगों को इस कदर मंत्रमुग्ध कर दिया कि दरबार में एक तरफ सन्नाटा पसरा था और दूसरी तरफ श्रोताओं के आँखों में आंसू। धीरे-धीरे मिश्र जी संगीत की साधना में खुद को मांजते रहे। उनकी साधना का आलम यह था कि गांव में बुढ़ी महिलाओं की ओर से गाए जाने वाले लोकगीतों को भी शास्त्रीय संगीत में ढ़ाल देते। पंडित जी इकलौते ऐसे गायक थे जो 70 प्रकार के लोक संगीत गा सकते थे।
वह लोक से इस कदर जुड़े हुए थे कि एक बार एक सम्मान मिलने के बाद जब मीडिया वाले उनके यहां पहुंचे तो वह सामुदायिक नलके से पानी भर रहे थे। पत्रकारों ने जब उनसे पूछा कि पुरस्कार मिलने पर कैसा लग रहा है, तो उन्होंने कहा कि पुरस्कार मिलना अच्छा है, लेकिन सरकार को स्थानीय समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए।
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