नयी दिल्ली , नवंबर 20 -- उच्चतम न्यायालय ने एक अहम संवैधानिक फैसले में गुरुवार को कहा कि राज्य के राज्यपाल राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयक को अनिश्चित काल तक नहीं रोक सकते।

न्यायालय ने हालांकि यह भी स्पष्ट किया कि वह संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपालों को मंज़ूरी देने या न देने के लिए ज़रूरी समयसीमा तय नहीं कर सकता लेकिन राज्यपाल अनिश्चित काल तक किसी भी विधेयक को नहीं रोक सकते। हालांकि इसमें स्पष्ट किया गया है कि लंबे समय तक, बिना किसी वजह के मंजूरी नहीं दिये जाने के मामलों में न्यायालय विधेयक की प्राथमिकता की जांच किए बिना एक निश्चित अवधि में फैसला करने का निर्देश देते हुए एक सीमित 'परमादेश' रिट जारी कर सकते हैं।

गौरतलब है कि आठ अप्रैल को उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु विधानसभा से पारित हुये विधेयकों पर फैसला देते हुए पहली बार यह कहा था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल की तरफ से भेजे गए किसी भी बिल पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। यह फैसला अपने आप में ऐतिहासिक माना गया क्योंकि इससे पहले ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं थी।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई में संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत उच्चतम न्यायालय से राय मांगी थी। उन्होंने पूछा था कि क्या न्यायालय यह तय कर सकता है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल को विधेयकों पर कब तक निर्णय लेना चाहिए।

श्रीमती मुर्मू ने अपने पांच पन्नों के संदर्भ पत्र में 14 प्रश्नों पर उच्चतम न्यायालय से राय मांगी थी। यह सवाल मुख्य रूप से अनुच्छेद 200 और 201 से जुड़े हैं, जिनमें राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों का जिक्र है।

इस मामले में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की संविधान पीठ ने 10 दिनों तक दलीलें सुनीं और 11 सितंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था।

संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति संदर्भ का जवाब देते हुए, मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति एएस चंदुरकर की संविधान पीठ ने कहा कि न्यायालय द्वारा तय की गई समयसीमा संविधान में सोची गई "लचीलेपन" के खिलाफ होगी।

पीठ ने बार-बार स्पष्ट किया कि वह सिर्फ़ राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए संवैधानिक सवालों पर बात कर रही है। तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और पंजाब समेत कई राज्यों ने यह तर्क देते हुए कि मुद्दों पर पहले ही फैसला हो चुका है, संदर्भ को बनाए रखने का विरोध किया।

न्यायालय ने पूछा कि क्या राज्यपाल पारित विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक सकते हैं,और चेतावनी दी कि इस तरह की कवायद से लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकारें "राज्यपाल की मर्ज़ी" पर आ सकती हैं।

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