नयी दिल्ली , नवम्बर 07 -- भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध में भारतीय सेना के रणबांकुरों के शौर्य की प्रतीक रेजांग ला की लड़ाई पर आधारित फिल्म ' 120 बहादुर' से लद्दाख के चुशुल में स्थित रेजांग ला युद्ध स्मारक एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। फरहान अख्तर की रेजांग ला की लड़ाई पर आधारित फिल्म '120 बहादुर' का ट्रेलर गुरुवार को रिलीज़ होने के साथ ही एक बार फिर यह स्मारकचर्चा में है। स्मारक पर शहीदों के सम्मान में प्रसिद्ध कवि थॉमस बैबिंगटन मैकाले की कविता 'होराटियस' की पंक्ति " और मनुष्य की मृत्यु कैसे बेहतर हो सकती है, अपने पूर्वजों की राख से, और देवताओं के मंदिरों से, भयावह बाधाओं का सामना करने से बेहतर" अंकित है।

दुनिया के लिए रेजांग ला युद्ध स्मारक शहीद वीरों की वीरता का स्मरण करने के लिए है, लेकिन यह सौहार्द और भाईचारे की एक मार्मिक कहानी समेटे हुए है जिसके लिए भारतीय सेना जानी जाती है। यह स्मारक दुनिया में अपनी तरह का अनूठा है क्योंकि इसमें एक श्मशान घाट भी है, जिसे अहीर धाम के नाम से जाना जाता है।

वह 18 नवंबर 1962 का दिन था जब 16,420 फुट की ऊंचाई पर हड्डियों को सुन्न कर देने वाली ठंड और तीखी हवा के बीच, 13वीं कुमाऊं रेजिमेंट की चार्ली कंपनी के 120 जवान, निडर मेजर शैतान सिंह भाटी, परमवीर चक्र के नेतृत्व में, लद्दाख में 114 ब्रिगेड के तत्वावधान में, चुशूल घाटी के दक्षिण-पूर्वी रिज पर स्थित रेजांग ला पॉइंट की रक्षा के लिए हज़ारों चीनी सैनिकों के सामने डटे रहे।

सेना से पूरी तरह कटे होने, संचार लाइनें कट जाने और तोपखाने की सहायता उपलब्ध न होने के बावजूद इन वीरों ने आखिरी सैनिक और आखिरी गोली तक लड़ाई लड़ी, यह सुनिश्चित करते हुए कि भारत की एक इंच ज़मीन भी दुश्मन के हाथों में न जाए।

उसके बाद महीनों तक इन सैनिकों के भाग्य का किसी को पता नहीं चला। उनके शरीर बर्फ में पूरी तरह से जम गए थे, उनके परिवारों को नहीं पता था, उनके आसपास की दुनिया को भी नहीं पता था। फरवरी 1963 में ही भारतीय सेना के एक खोजी दल ने युद्ध के मैदान में बर्फ से ढके शव खोद निकाले जिनमें से कुछ अभी भी अपनी बंदूकों से चिपके हुए थे।

इनके पार्थिव शरीरों को चुशूल के मैदानों में लाया गया। हालांकि, अधिकारियों के सामने शहीदों के पार्थिव शरीर उनके परिवारों तक पहुंचाने की दुविधा थी क्योंकि दुर्गम इलाके और सीमित संसाधनों को देखते हुए इन्हें उनके घर भेजना संभव नहीं था।

यह निर्णय लिया गया कि केवल मेजर शैतान सिंह का पार्थिव शरीर उनके गृहनगर जोधपुर,भेजा जाएगा, जबकि बाकी शहीदों का चुशूल में ही पूरे सैन्य सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया जाएगा। तत्कालीन ब्रिगेड कमांडर, ब्रिगेडियर टी.एन. रैना ने शहीदों का अंतिम संस्कार एक सामूहिक चिता में करने का बीड़ा उठाया। हालांकि, बंजर भूमि और घास का एक तिनका या टहनी तक न दिखाई देने के कारण, चिता बनाना असंभव था।

यह निर्णय लिया गया कि ब्रिगेड के अधिकारियों के मेस, आवास और कार्यालयों से फर्नीचर लेकर चिता बनाई जाएगी।

आखिरकार चिता बनाकर उस पर शव रखे गए। सैनिकों की अंतिम यात्रा के लिए अनुष्ठान किए गए। वहां, ठण्डे, बंजर परिदृश्य के बीच, शहीदों को अंतिम विदाई देते हुए सभी लोगों की आंखों में आंसू थे।

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