नई दिल्ली, अगस्त 2 -- सुधीश पचौरी,हिंदी साहित्यकार वे न हों, तो सच कहता हूं कि साहित्य ही न हो। वे न हों, तो कोई गोष्ठी, कोई सेमिनार, कोई साहित्य समारोह न हो। वे न हों, तो न मंच हो, न माइक हो, न पानी की टुंइयां बोतल हो; न अध्यक्ष हो, न मुख्य वक्ता या वक्ता हों; न टिप्पणीकार हों, न प्रश्नकर्ता हों; न आयोजक हो, न संयोजक हो, न गोष्ठी का समापन करने वाले और श्रोताओं को धन्यवाद देने वाले हों कि अगर आप न होते, तो हम न होते। हम न होते, तो साहित्य न होता और साहित्य न होता, तो हमारे जैसों का क्या होता? वे न हों, तो न साहित्य की शामें हों, न रातें हों और न सुबहें हों। न फोनाफोनी हो, न मैसेज हो, न मस्का हो, न साहित्य का ठसका हो। न मजाक हो, न ऊंच-नीच हो, न स्कोर सेटल करने की कला विकसित हो, न ताली हो, न गाली हो, न उखाड़-पछाड़ हो, न तू-तू हो, न मैं-मैं ...
Click here to read full article from source
To read the full article or to get the complete feed from this publication, please
Contact Us.