नई दिल्ली, मई 1 -- यहां सुबह चाय की गर्मी से नहीं, खाली झोले और औजार उठाने की जल्दी से शुरू होती हैं। पुरुष श्रमिक जिनमें अधेड़ उम्र के साथ-साथ नवयुवक भी हैं। बिना निश्चित ठिकाने के निकल पड़ते हैं काम की तलाश में। कोई निर्माण स्थल पर पहुंचता है, कोई चौक पर खड़ा रहता है। कोई ईंट-भट्ठे की राह देखता है। लेकिन ज्यादातर बार हाथ खाली ही लौटते हैं। सप्ताह में तीन या चार दिन काम मिल जाए तो वही त्यौहार जैसा होता है। दिहाड़ी भी तय नहीं। कभी 250, कभी 400 और कभी पूरा दिन खटने के बाद भी सिर्फ भाई अभी पैसे नहीं हैं, कल ले लेना मिलते हैं। ऐसी ही कहानी है शहर के नगला कलार की श्रमिक बस्ती की। हिन्दुस्तान टीम ने बोले अलीगढ़ अभियान के तहत नगला कलार के श्रमिकों से संवाद किया। इस दौरान उन्होंने बताया कि नगला कलार की गलियों में अगर कोई चीज सबसे स्थायी है, तो व...