शामली, अगस्त 8 -- शहर के जैन धर्मशाला में मुनि श्री 108 विव्रत सागर ने प्रवचन करते हुए का कहा कि संसार में दो प्रकार के भाव होते हैं। उत्कृष्ट और निकृष्ट। सबसे निकृष्ट भाव है 'मैं यानी अहंकार। जीव ने अनेक योनियों में इसी अहंकार से अपनी पहचान बनाई है। एक शिष्य, जो अत्यंत ज्ञानवान था, पर अहंकारी भी, गुरु से शिक्षा पूर्ण करने के बाद गुरुदक्षिणा मांगता है। गुरु उसे संसार की सबसे व्यर्थ वस्तु लाने को कहते हैं। शिष्य मिट्टी, गोबर, कूड़ा लाता है, पर सभी अपनी उपयोगिता बताते हैं। अंत में उसे बोध होता है कि उसका 'मैं ही सबसे व्यर्थ है। उसने अपना अहंकार गुरु के चरणों में समर्पित किया। जैन मुनि ने श्रद्धाओं को संबोधित करते हुए कहा कि हर जीव को यह प्रक्रिया अपनानी चाहिए। लोग दुकान, फैक्ट्री आदि को अपना मानकर उसमें उलझे रहते हैं, जबकि वे आत्मा को पहचान ...
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