बिजनौर, जून 22 -- कपड़े सिर्फ वस्त्र नहीं होते वे कहानियां होते हैं समय की, संस्कृति की, और उन हाथों की जिन्होंने उन्हें बुना और सहेजा। कभी एक धागा छूट जाए, एक रेखा बिगड़ जाए तो उसे जीवन देने का हुनर जिसे हम रफूगरी कहते हैं। वो कला है जो केवल धागे नहीं परंपराएं भी जोड़ती है। नजीबाबाद की गली-कूचों में कुछ चुपचाप से हाथ अब भी धागों से संवाद कर रहे हैं। पश्मीना की नरमी हो या जामावार की जटिलता इन रफूगरों के स्पर्श में वही शुद्धता है, जो सदियों पुरानी कला को जीवित रखती है। लेकिन अफ सोस अब ये हाथ कम होते जा रहे हैं और साथ ही वह चमक फीकी पड़ती जा रही है जो कभी भारत की शिल्प परंपरा की शान थी। जहां एक ओर 78 वर्षीय हामिद अली खान अब भी रफूगरी की रेखाएं थामे हुए हैं वहीं दूसरी ओर नई पीढ़ी की बेरुखी इस विरासत को अंधेरे की ओर धकेल रही है। अब रफूगरी का काम क...