बलिया, मई 15 -- 'माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोय-कबीरदास का यह प्रसिद्ध दोहा इस समय मिट्टी के कारीगरों पर ही सटीक बैठ रहा है। कुंभकार अपनी कला को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। मिट्टी के बर्तनों के व्यवसाय को न अनुदान मिल रहा है और न कोई सुविधा। मशीनचालित चाक मिलते हैं, लेकिन गिनती के। उन्हें चलाने के लिए बिजली विभाग से जंग लड़नी पड़ती है। ज्यादातर इलाकों के कुम्हारों को बर्तन बनाने लायक मिट्टी के लिए भी जूझना पड़ रहा है। चाक पर मिट्टी को मनचाहा आकार देने वाले कुंभकारों ने भरौली में 'हिन्दुस्तान से बातचीत के दौरान कारोबार से जुड़ी दिक्कतें साझा कीं। मोतीलाल ने बताया कि कारोबार पर मंदी की मार है। घर के सामने मिट्टी के बर्तन तैयार रखे हैं, लेकिन खरीदार नहीं मिल रहे हैं। युवा पीढ़ी का इस काम से मोहभं...