जौनपुर, फरवरी 17 -- सदियों से बांस की कारीगरी करने वाले बेनवंशी समाज की कला दम तोड़ रही है। शादी-ब्याह की शान रहीं डलिया-झपिया अब ग्राहकों के इंतजार में धूल फांकती हैं। महंगे बांस, प्लास्टिक के सस्ते विकल्प और सरकारी उदासीनता ने इस परंपरागत हुनर को गहरी मार दी है। ज्यादातर कारीगर 100 रुपये से ज्यादा नहीं कमा पाते। कुछ के पास आयुष्मान कार्ड है मगर इलाज नहीं मिलता। प्लास्टिक पर सख्ती से रोक लगे, बांस की कीमतें नियंत्रित हों और सरकारी योजनाओं का लाभ मिले तो यह हुनर और हुनरमंद बच सकते हैं। नखास मोहल्ले की एक गली को लोग बांसफोड़ गली के नाम से जानते हैं। वहां बसे कारीगर बांस से डलिया, झापी, डलमौनी आदि वस्तुएं बनाते हैं। यह सिर्फ उनका रोजगार नहीं बल्कि उनकी पहचान भी है। लेकिन आज इस गली के 35 परिवारों के 200 से अधिक सदस्य इस पहचान को बचाने की जद्...