भागलपुर, सितम्बर 16 -- प्रस्तुति: ओमप्रकाश अम्बुज आंगन की दीवारों पर खींची गई साधारण रेखाएं जब रंगों से भरती थीं, तो वे केवल चित्र नहीं रह जातीं, बल्कि जीवन की कहानियां बन जाती थीं। इनमें आस्था, रिश्ते और परंपरा की गहरी छाप झलकती थी। यही है मिथिला चित्रकला, जो सदियों से स्त्रियों की उंगलियों के सहारे घर-आंगन को मंदिर का स्वरूप देती आई है। शादी-ब्याह, पर्व-त्योहार और खास अवसरों पर बनाई गई ये चित्रकृतियां केवल सजावट नहीं, बल्कि लोकजीवन और सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतीक होती थीं। यह कला रंगों के माध्यम से भावनाओं को गढ़ती और पीढ़ियों को जोड़ती आई है। लेकिन बदलते समय में मोबाइल स्क्रीन और फ्लेक्स बोर्ड की कृत्रिम रंगीनियां इस परंपरा को धीरे-धीरे धुंधला कर रही हैं। समय का पहिया घूमता है और हर पीढ़ी अपनी छाप छोड़ती है। लेकिन जब परंपरा धीरे-धीरे त...