भागलपुर, जुलाई 8 -- प्रस्तुति: ओमप्रकाश अंबुज हर सुबह जब गांव की गलियों में दूध की टंकी लादे मोटरसाइकिलों की गड़गड़ाहट गूंजती है, तब लगता है जैसे मेहनत जाग रही हो। आंखों में उम्मीद, दिल में संघर्ष और हाथों में थामे मेहनत का फल-दूध। लेकिन न स्थायी बाजार है, न सही कीमत। चारा नकद में खरीदना पड़ता है, दूध उधार में बिकता है। कई बार बिना दूध बेचे लौटना पड़ता है। बरसात में भीगते हैं, गर्मी में झुलसते हैं, फिर भी डटे रहते हैं। अगर एक स्थायी, सुविधायुक्त मंडी बन जाए, तो इनका जीवन भी बदल सकता है। सरकार अगर साथ दे, तो ये किसान भी मुस्करा सकते हैं। यह बातें हिन्दुस्तान संवाद में उभर कर सामने आईं। हर सुबह जब सूरज की किरणें आसमान में दस्तक देती हैं, उसी समय मोटरसाइकिल पर दूध की टंकी लादे हजारों दुग्ध उत्पादक कुरसेला, कोढ़ा, बरारी और फलका से निकल पड़ते ...
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