नई दिल्ली, नवम्बर 4 -- बिहार में बीते कुछ दशकों में जब भी चुनावों का जिक्र होता था, तो बरबस आंखों के सामने जंगलराज की तस्वीर उभर जाया करती थी, जिसमें चुनाव का मतलब जीतने की सूरत में जश्न और हारने की स्थिति में मार-काट होता था। राजनीतिक नेताओं की सत्ता-लालसा ने यहां की राजनीति में धन-बल, बाहुबल और आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की आमद बढ़ाई, जिसके बाद सत्ता का अर्थ ही बदल गया। आलम यह हो गया कि यहां सत्ता का मतलब भय, भूख व बंदूक बन गया और राज्य की तरक्की का अर्थ सत्ताधीशों का निजी विकास होना बन गया। बाहुबलियों के भरोसे राज्य सरकार चलने लगी और जातिवाद की राजनीति गांव-गांव तक पहुंच गई। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि बिहार विकास की राह में निरंतर पिछड़ता चला गया। मगर इस बार वहां का जनमानस पूरी तरह से बदला-बदला सा नजर आ रहा है। 21वीं सदी के बिहार के यु...