बगहा, मार्च 13 -- बगहा, हमारे संवाददाता। होली गिले-शिकवे मिटा पर एक-दूसरे से गले मिलना, रंग व अबीर लगाने का पर्व है। यह सर्वविदित है लेकिन यह उक्ति चरितार्थ होती दिखती है वाल्मीकि टाइगर रिजर्व से सटे गांवों के बसे आदिवासी समुदाय के थारुओं में। थारुओं में होली मेंे एक विशेष प्रकार की परंपरा सदियों से चली आ रही है जिसका पालन आज भी खुशी-खुशी वे करते हैं। प्रगतिशील थारु मंच के सदस्य सह सेवानिवृत शिक्षक दृगनारायण प्रसाद की माने तो उनके समाज में होली की सुबह आम सुबह से अलग होती है। होली में चाहे कितना ही रंग-अबीर खेले, कितना भी हुडदंग करे लेकिन इन सबसे पहले उन्हें एक रिवाज का पालन करना ही पड़ता है। इसमें सुबह घर के सभी सदस्य स्नान के बाद एक साथ इकट्ठा होते हैं। इकट्ठा होने के बाद नीम का पत्ता, भुनी हुयी गेंहू की बाली व गुड़ खाते हैं। जानकारो ने ब...