नई दिल्ली, अक्टूबर 1 -- न जाने कहां खो गए वे दिन, जब दशहरा सिर्फ एक त्योहार नहीं होता था, बल्कि हमारे दिलों में उमंग और घर-आंगन में चहल-पहल का दूसरा नाम हुआ करता था। आज से 10-15 साल पहले के दशहरा और आज के दशहरा के बीच फासला सिर्फ समय का नहीं है, बल्कि भावनाओं का, उत्साह का और उस मासूमियत का भी है, जो आधुनिकता की चकाचौंध में कहीं पीछे छूट गई। मुझे आज भी याद है, बचपन में दशहरे का इंतजार कितना खास हुआ करता था। महीनों पहले से तैयारियां शुरू हो जाती थीं। मां से बार-बार हम पूछा करते- मम्मी, दशहरा में कितने दिन बाकी हैं? हर दिन उंगलियों पर गिनती होती, जैसे कोई अनमोल खजाना मिलनेे वाला हो। सबसे ज्यादा उत्साह होता था नए कपड़े मिलने और मेले से खिलौनों की खरीदारी का- रिमोट वाली कार, चमचमाती बंदूक या हेलिकॉप्टर- खिलौनों की लिस्ट तो हम पहले ही बना लिया...