नई दिल्ली, जुलाई 5 -- मन है कि मानता नहीं, पर मनुष्य है कि सदियों से अपने मन को समझने की मनोकामना लिए जी रहा है। ज्यादातर मनुष्यों का विस्तार मन से बाहर ही हुआ है। विज्ञान की दुनिया ने भी मन के बाहर अपना बहुत विस्तार किया है और मन के अंदर अनेक रहस्य अभी भी मजबूती से कायम हैं। यही वजह है कि जब मन परेशान करता है, तो विज्ञान के भी हाथ-पांव फूलने लगते हैं। ऐसा ही होता था अमेरिका के एक प्रोफेसर साहब के साथ। वह नामी मनोवैज्ञानिक थे। अपने मरीजों के मन को समझने और ठीक करने के वैज्ञानिक जतन में तल्लीन रहते थे। एक से बढ़कर एक मनोरोगी आते थे, अवसाद में डूबे हुए, तनाव से तड़पते हुए। यह विज्ञान की विवशता है कि वह मन को बाहर से ही देख पाता है। मनोचिकित्सक कोशिश करते हैं कि मन को बाहर से कैसे सहारा दिया जाए, मन को कैसे द्रव्य या दवाएं दी जाएं। ब्रुकलिन ...
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