नई दिल्ली, सितम्बर 13 -- अपने जमाने में पिता मैट्रिक पास थे, पर न जाने क्यों कहीं पक्की नौकरी नहीं लगती थी। गरीबी किसी चिपकू रिश्तेदार की तरह बार-बार लौट आती थी। पिता की पढ़ाई के चलते उनकी शादी अच्छे बड़े घर में हुई थी और वह बड़ा घर ही सहारा बनता था। एक बार तो ऐसी नौबत आई कि कर्ज चुकाने के लिए बंगाल के देबानंदपुर गांव स्थित पैतृक मकान को पिता ने मात्र 225 रुपये में बेच दिया और परिवार लेकर आ गए ससुराल भागलपुर। यहां कम से कम बच्चों को खाने-पीने का अभाव नहीं था। उसी घर के एक कमरे में पिता समय बचाकर कुछ-कुछ लिखते थे। बाकी समय यह सोचकर कहीं न कहीं काम पर जाते थे कि ससुराल पर ज्यादा भार नहीं बनना है। उनका बड़ा बेटा किशोर हो चला था, जिसे अक्सर सताते अभावों ने समय से पहले समझदार बना दिया था। वह समझदार किशोर अक्सर पिता की रचनाओं को पढ़ता था। कभी क...
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