नई दिल्ली, अक्टूबर 25 -- वह दादी के दुलारे थे। उन्हें दादी ने ही महादेव के मंदिर महेंद्रनाथ में माथा टेकते मांगा था। सब मान रहे थे कि महेंद्रनाथ के प्रताप से ही पत्थर पर पुष्प खिला है, आंगन में बरसों इंतजार के बाद किलकारियों की बहार आई है। इसलिए नाम रख दिया गया- महेंद्र और सभी लोग प्यार से 'महेंदर' पुकारने लगेे। बालक महेंद्र की कद-काठी दिनों-दिन बढ़ी और वह गीत-गवनई में डूबते चले गए। बहुत गुणी थे। जिस कला में हाथ लगाते, पारंगत हो जाते थे। घोड़ा चढ़े, तो शानदार घुड़सवार हो गए, अखाड़े में उतरे, तो बड़े-बड़ों को धूल चटाने लगे। बस, एक समस्या थी, पढ़ने से भागते थे। पिता बड़े चिंतित हुए, घर का बड़ा बेटा पढ़ ले, तो जमींदारी संभाले। एक दिन पिता ने अपनी मां को समझाया कि मां, अपने दुलारे पोते को समझाओ। दादी ने एक सुबह पोते को फटकारा,'बबुआ, गीत-गवनई ...