नई दिल्ली, अगस्त 9 -- किसी देश की दशा-दिशा आंकनी हो, तो उसके एक आम आदमी की जिंदगी में झांक देखिए, सब साफ हो जाएगा। पेश है, एक अनाम भारतीय का सफरनामा। उसका बचपन, साल 1966। मिर्जापुर शहर में वह अगस्त की दोपहर थी। एक राजकीय अधिकारी ने अपने छोटे से परिवार के साथ भोजन शुरू ही किया था कि उसकी साढ़े चार साल की बेटी ने रोना शुरू कर दिया। अगला नंबर उसके छह वर्ष के बेटे का था। इस हाय-तौबा की वजह थी लाल रंग की वे रोटियां, जो उस दिन पहली बार परोसी गई थीं। उनका स्वाद अजीब था। बच्चे छोटे थे, लेकिन स्वाद और गंध उम्र के गुलाम नहीं होते। उन दिनों अमेरिका जो गेहूं हमारे देश को दान में देता था, उसे वहां मुर्गियां खाती थीं। वह गेहूं भी महज नसीब वालों तक सीमित था। मिर्जापुर के आदिवासी तो कंद-मूल पर जिंदगी काट रहे थे। अवर्षण की वजह से भयंकर सूखा पड़ा था और खेत च...