नई दिल्ली, अगस्त 9 -- सुधीश पचौरी,हिंदी साहित्यकार वह वहां मिले। बहुत दिनों बाद मिले। ऐसा लगा, युगों बाद मिले हैं। लेकिन वह मिले, तो ऐसा लगा, जैसे मिले ही नहीं। उनका दायां हाथ हल्के से उठा और बैठ गया। मैं उनको देख रहा था, लेकिन 'नो आई कांटेक्ट', जैसे मैं वहां हूं ही नहीं। गोष्ठियां, सेमिनार, सम्मेलन वे सांस्कृतिक स्पेस होते हैं, जहां मित्र-मिलन होता है। कुछ गप्पें-गपास्टिक होती हैं, बहुत कुछ बेमतलब होता है, लेकिन इस बेमतलब का भी मतलब होता है। लेकिन इन दिनों कोई किसी से मिलकर भी नहीं मिलता! यूं सब ऑनलाइन मिलते रहते हैं और इतना-इतना मिलते हैं कि ऑफलाइन मिलने की जरूरत ही नहीं रहती। इस जमाने में हरेक बंदा हर बंदे की खबर रखता है। कौन क्या करता है? कब करता है? किससे मिलता है? क्या लिखता है? क्या पढ़ता है? उसकी लाइन क्या है? सबको सब मालूम रहता ह...