नई दिल्ली, सितम्बर 30 -- भक्ति का स्वरूप मानसिक संघर्ष और नैतिकता, दोनों से जुड़ा है। मानसिक संघर्ष से उपजी भक्ति और नैतिक सिद्धांतों पर आधारित भक्ति में सूक्ष्म अंतर है। नैतिक नियमों के पालन से जन्मी भक्ति में वह भावनात्मक गहराई नहीं होती, जिसमें भक्ति की मिठास अनुभव की जा सके। ऐसी भक्ति लेन-देन जैसी होती है, जिसमें व्यक्ति परमात्मा से कुछ पाने की अपेक्षा करता है। सच्ची भक्ति तो सर्वोच्च सत्ता के बारे में निरंतर चिंतन से उत्पन्न होती है। जब मनुष्य का मन क्षुद्र विचारों से मुक्त होकर महान के आकर्षण में डूब जाता है, तभी वास्तविक आध्यात्मिक शांति मिलती है। परमात्मा का आकर्षण सार्वभौमिक है। वह सबको अपनी ओर खींचते हैं। कभी यह आकर्षण सुख का रूप लेता है, कभी दुख का। भक्त दोनों ही स्थितियों को ईश्वर की कृपा मानकर स्वीकार करता है। सच्चा साधक सुख ...