शामली, अगस्त 7 -- शहर के जैन धर्मशाला में बुधवार को चतुर्मास के 32वे दिन मुनिराज श्री 108 विव्रत सागर ने प्रवचन करते हुए कहा कि अहंकार और आत्मा के विरोधाभासी स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं, इसे संसार में सबसे निकृष्ट (बुरा) और उत्कृष्ट (सर्वश्रेष्ठ) भाव बताते हैं। इस द्वैत को समझना ही संसार के बंधन से मुक्ति का मार्ग है। मुनिराज बताते हैं कि चौरासी लाख योनियों और संसार के बंधनों से मुक्त होने की कुंजी मैं में ही निहित है। जैसे बैंक लॉकर खोलने के लिए दो चाबियाँ होती हैं, वैसे ही मोक्ष का ताला खोलने के लिए भी मैं की चाबी का सही उपयोग आवश्यक है। मैं के निकृष्ट रूप को अहंकार के रूप में परिभाषित किया गया है, जो गुरु तक पहुंचने के मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है। यह अहंकार ही गुरु के द्वार पर खड़ा द्वारपाल बन जाता है, आत्मा के कल्याण में बाधक होता है...