महर्षि रमण, जून 24 -- अज्ञान, आनंदमय विशुद्ध आत्मा पर परदा डाल देता है। यह अज्ञानरूपी परदा मिथ्याज्ञान है, हमें उसे दूर करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। आत्मानुभूति कोई बाहर की वस्तु नहीं कि उसकी पुनः प्राप्ति हो सके। वह तो पहले ही से विद्यमान है। मैंने अभी आत्मानुभूति नहीं की, इस आशयवाले भाव को मन से निकाल देना चाहिए। निश्चलता या शांति ही आत्मानुभूति है। एक पल भी ऐसा नहीं है, जब आत्मा विद्यमान न हो। जब तक संदेह हो या 'मैंने नहीं जाना' का भाव बना रहता है, तब तक वैसे संदेह या उस प्रकार के विचार को मन से निकाल देने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। आत्मा को अनात्मा समझने के कारण से ही वे विचार उठते हैं। जब अनात्मा का नाश हो जाता है, तब केवल विशुद्ध आत्मा बच रहती है। स्थान देने के लिए वहां की भीड़ को हटाना आवश्यक है; जगह तो कहीं बाहर से लानी नहीं ...
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