पटना , अक्टूबर 21 -- नब्बे के दशक के मध्य तक बिहार विधानसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की दमदार मौजूदगी थी और सदन से लेकर सड़क तक भाकपा का प्रभाव दिखता था, लेकिन पिछले दो दशकों में भाकपा का आधार लगातार खिसकता चला गया और वर्ष 2015 के चुनाव में उसका कोई सदस्य नही पहुंच सका था।
वर्ष 2015 में बिहार विधानसभा में चुनाव में भाकपा ने 98 सीटों पर अपने उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे, लेकिन सभी को पराजय मिली।चौंकाने वाली बात यह है कि वर्ष 1952 के चुनाव के बाद से यह पहली बार हुआ था जब भाकपा का कोई सदस्य सदन तक नहीं पहुंचा।
वर्ष 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में भाकपा का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा था। इस वर्ष भाकपा ने 24 प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में उतारा,लेकिन उसका कोई सदस्य विधानसभा नहीं पहुंच सका था। वर्ष 1956 के विधानसभा उप चुनाव में चंद्रशेखर सिंह बेगूसराय सीट से जीते और विधानसभा में पहली बार वाम दल का प्रवेश हुआ।उसके बाद तो बेगूसराय जैसे जिले भाकपा के लिए गढ़ ही बन गये और उसे बिहार का लेनिनग्राद कहा जाने लगा।
1957 के दूसरे विधानसभा चुनाव तक भाकपा ने अपनी स्थिति थोड़ी मजबूत कर ली थी। विधानसभा चुनाव में उसके 60 प्रत्याशियों में से सात प्रत्याशी जीते। वर्ष 1962 के तीसरे चुनाव में भाकपा के टिकट पर 84 प्रत्याशी चुनावी समर मे उतरे और 12 विधायक विधानसभा में पहुंच गये ।वर्ष 1967 के विधानसभा चुनाव में भाकपा के टिकट पर 97 प्रत्याशी उतरे जिसमें से 24 ने सदन में कब्जा जमा लिया। वर्ष 1967 में राजनीतिक परिस्थिति कुछ ऐसी बनी जिसमें मिली जुली सरकार का गठन हुआ जिसमें भाकपा भी शामिल हुई।
वर्ष 1969 के मध्यावधि चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। दो विपरीत राजनीतिक धुरी वाले दल जनसंघ और भाकपा के पास विधायकों की संख्या इतनी थी कि वे किसी की सरकार बना सकते थे। इस चुनाव में भाकपा के 162 प्रत्याशी मैदान में उतरे जिसमें से 25 को जीत हासिल हुयी । भाकपा ने मध्यमार्ग अपनाया और भाकपा के समर्थन से दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार गठित हुई। यह घटना वामपंथी राजनीति के लिए एक नया मोड़ था। इसके बाद तो भाकपा ने कांग्रेस से राजनीतिक रिश्ता बना लिया। वर्ष 1972 के छठे विधानसभा चुनाव में भाकपा ने कांग्रेस से तालमेल कर 55 प्रत्याशी खड़े किये और उसके 35 प्रत्याशी जीत गये। छठे विधानसभा के लिए हुए चुनाव में भाकपा का प्रदर्शन अब तक का सबसे बेहतर रहा है।
वर्ष 1977 में आपातकाल के बाद हुये विधानसभा चुनाव में जब जनता पार्टी की आंधी आई, तब भी 21 सीटों पर भाकपा ने जीत हासिल की। भाकपा के 73 प्रत्याशी चुनावी समर में उतरे थे । वर्ष 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में भी भाकपा ने अपनी मजबूत दावेदारी बरकरार रखी। भाकपा ने 135 प्रत्याशियों को चुनावी समर में उतारा जिसमें 23 को सफलता मिली । हालांकि वर्ष 1985 में हुये विधान सभा चुनाव में भाकपा की सीट सदन में आधी रह गयी । इस चुनाव में भाकपा के टिकट पर 167 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा लेकिन सदन तक महज 12 ही पहुंच सके।
वर्ष 1990 के चुनाव में भाकपा को एक बार फिर से शानदार सफलता मिली। भाकपा के टिकट पर 109 प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतरे, जिसमें 23 ने सदन में पहुंचने में कामयाब रहे । वर्ष 1995 के विधानसभा में भाकपा के टिकट पर 61 प्रत्याशियों ने भाग्य आजमाया जिसमें 26 निर्वाचित हुये।
बिहार की राजनीति में 20-25 साल पहले तक भाकपा की धमक सदन से सड़क तक सुनाई देती थी, लेकिन हाल के सालों में वामपंथी दलों की उपस्थिति कभी-कभार सड़कों पर तो जरूर नजर आती है, लेकिन सदन में भाकपा की उपस्थिति बहुत कम हो गई है। भाकपा की जड़ों पर जोरदार प्रहार मंडलवाद के उभार से हुआ। मंडलवादी राजनीति ने जिन सामाजिक आधारों को जातिगत आधार पर लालू प्रसाद यादव के पक्ष में गोलबंद किया, लगभग वही भाकपा का जनाधार थीं। वर्ष 2000 के चुनाव के बाद से विधानसभा में वामपंथ की संख्या में गिरावट आनी शुरू हुई।
वर्ष 2000 में भाकपा के टिकट पर 153 उम्मीदवारो ने भाग्य आजमाया लेकिन उनमें से पांच को ही सफलता नसीब हुयी। फरवरी 2005 और अक्तूबर,2005 के चुनाव में भाकपा के सदस्यों की संख्या तीन -तीन तक सिमट गया। फरवरी 2005 में भाकपा ने 17 जबकि अक्टूबर 2005 में 35 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे।वर्ष 2010 में भाकपा के टिकट पर 56 प्रत्याशी चुनावी समर में उतरे थे लेकिन केवल एक प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल रहा।
वर्ष 2020 में भाकपा के टिकट पर छह उम्मीदवार समर में उतरे जिनमें दो विधायक बनने में सफल रहे।
एक दौर था जब बिहार की कई विधानसभा सीटों पर भाकपा का लाल झंडा बुलंद था। वक्त बदला। हालात बदले। मतदाताओं का मन और मूड भी बदल गया। वामदल की उपस्थिति बिहार के हर इलाके में थी। भाकपा के प्रत्याशी कई सीट पर मुकाबले में रहते थे। भाकपा के विभाजन और कुछ राजनीतिक समीकरण में बदलाव के बाद वामदल की स्थिति कमजोर हुयी। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के उदय से पहले 90 के दशक के अंत तक बिहार में वामपंथी दलों की मौजूदगी सड़क से लेकर सदन तक दिखाई देती थी। रामेश्वर प्रसाद सिंह,कमला मिश्रा मधुकर,भागेन्द्र झा,राम अवतार शास्त्री,विजय कुमार यादव,सूर्य नारायण सिंह, तेज नारायाण सिंह,चंद्रशेखर सिंह ,चतुरानन मिश्रा, शत्रुध्न प्रसाद सिंह जैसे वामपंथी विचार के कई दिग्गज राजनेताओं की वजह से बिहार में वाम दल मजबूत स्थिति में था, लेकिन राजद प्रमुख लालू प्रसाद के उभार में वामदल अपनी सियासी जमीन गंवा बैठे। वाम दलों के वोटर राजद में शिफ्ट हो गए।
बाद के दिनों में लालू प्रसाद यादव ने वामदल को तगड़ी चोट दी।इसके बाद नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने भी अतिपिछड़े, पिछड़े और दलित तमाम जातियों की गोलबंदी कर वामपंथी दलों की बची-खुची जमीन अपने नाम कर ली। बिहार में कई इलाके वामदल का कभी गढ़ रहे थे। समय के साथ वामदल का जनाधार बिहार में घटता गया। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में वामदल ,महागठबंधन में शामिल था। इस चुनाव में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी (भाकपा माले) ने 12, भाकपा और माकपा ने दो-दो सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बार की सियासी फिजा अलग है। भाकपा को उम्मीद है कि 2025 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी अच्छी जीत मिलेगी। देखना दिलचस्प होगा कि इस बार के चुनाव में भाकपा कितनी सीटों पर पार्टी का लाल झंडा बुलंद करने में सफल हो पाती है।
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