शिमला , दिसंबर 02 -- हिमाचल प्रदेश में लंबे समय से जारी सूखे और असामान्य रूप से कड़ी धूप के कारण सेब के बागों में कैंकर रोग के प्रकोप से बागवानों के बीच चिंता का सबब बन गया है।

सकल राज्य घरेलू उत्पाद में लगभग 14 प्रतिशत का योगदान देने वाली प्रमुख सेब की फसल लगभग पांच लाख बागवानों की आजीविका का आधार है और लगातार सूखे जैसी स्थिति के कारण इसके समक्ष संकट के हालात हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि समय से पहले पत्तियों का गिरना, मिट्टी की नमी में कमी और चिलचिलाती धूप ने मिलकर कैंकर के प्रकोप और प्रसार के लिए आदर्श परिस्थितियां पैदा कर दी है। तनों और शाखाओं पर धूप की कालिमा ने छाल के ऊतकों को क्षतिग्रस्त कर दिया है, जिससे पौधों की प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर हो गई है और पेड़ फफूंद संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो गए हैं। विशेषकर पुराने पेड़ों में, संक्रमण की दर अधिक देखी जा रही है।

विशेषज्ञों के अनुसार, इस मौसम में बागों में कई फफूंद कैंकर, भूरे तने कैंकर, धुएँ के रंग का कैंकर, ब्लाइट कैंकर, गुलाबी कैंकर, काला तना, नेल-हेड कैंकर और सिल्वर-लीफ कैंकर पाए गए हैं। इसके लक्षण आमतौर पर तनों, शाखाओं और टहनियों पर उभरे हुए या धँसे हुए, रंगहीन धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, जिनकी छाल छिल जाती है और पपड़ी बन जाती है। यदि उपचार न किया जाए, तो यह रोग धीरे-धीरे शाखाओं या मुख्य तने को घेर सकता है, जिससे पौधे मर सकते हैं और उत्पादकों को भारी आर्थिक नुकसान हो सकता है।

बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ. वाई. एस. परमार और डॉ. एस. पी. भारद्वाज ने बताया कि जब पौधे सूखे, चोटों या अनुचित छंटाई के कारण तनावग्रस्त होते हैं, तो कैंकर का प्रकोप बढ़ जाता है। जड़ों को नुकसान, लापरवाही से की गई छंटाई, और यहाँ तक कि बागों में आग लगना भी फफूंद संक्रमण के प्रवेश द्वार बन सकते हैं।

बागवानी विभाग के विषय विशेषज्ञ डॉ. संजय चौहान ने ज़ोर देकर कहा कि कुछ उत्पादक सूखे के दौरान समय पर प्रशिक्षण और छंटाई करते हैं, जिससे पौधों को संक्रमण का ख़तरा और बढ़ सकता है। उन्होंने बागवानों को सलाह दी कि वे सर्दियों की बारिश या बर्फबारी के बाद मिट्टी में पर्याप्त नमी आने तक छंटाई न करें।

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