शिमला , नवंबर 07 -- हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की प्रशासनिक कार्यप्रणाली पर कड़ी नाराजगी व्यक्त करते हुए शुक्रवार को कहा कि महत्वपूर्ण निर्णय बिना समझदारी और दूरदर्शिता के लिए जा रहे हैं।
न्यायमूर्ति गुरमीत सिंह संधावालिया और न्यायमूर्ति रंजन शर्मा की खंडपीठ ने लीगल रिमेंबरेंसर-सह-प्रधान सचिव (कानून) की नियुक्ति में बार-बार होने वाले फेरबदल पर भी सवाल उठाया और कहा कि यह उचित कानूनी मार्गदर्शन एवं शासन में गंभीरता की कमी को दर्शाता है।
न्यायालय ने राज्य सरकार को कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) निधियों का प्रभावी तरीके से उपयोग करने में विफल रहने के लिए फटकार लगाई, विशेष रूप से आपदा राहत एवं पुनर्वास प्रयासों के लिए। न्यायालय ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार राज्य में कार्यरत बड़ी कंपनियों से सीएसआर योगदान लेने के अपने कानूनी अधिकारों एवं कर्तव्यों से अनभिज्ञ नजर आती है।
उच्च न्यायालय द्वारा यह टिप्पणी एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की गई जिसमें यह जानने की कोशिश की गई थी कि कानून में स्पष्ट प्रावधान होने के बावजूद सरकार ने सीएसआर सहायता के लिए कंपनियों से संपर्क क्यों नहीं किया।
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135 का हवाला देते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि 500 करोड़ रुपये या उससे अधिक के नेट वर्थ, 1,000 करोड़ रुपये से अधिक के कारोबार या पांच करोड़ रुपये से अधिक वार्षिक लाभांश वाली कंपनियां कानूनी रूप से पिछले तीन वर्षों के अपने औसत शुद्ध लाभ का कम से कम दो प्रतिशत सीएसआर गतिविधियों पर खर्च करने के लिए बाध्य हैं।
अदालत ने कहा कि अगर राज्य सरकार सक्रियता दिखाती तो वह आपदा के बाद राहत एवं पुनर्निर्माण कार्यों के लिए प्रमुख कंपनियों के सीएसआर फंड से करोड़ों रुपये जुटा सकती थी लेकिन इसके बजाय "ऐसा लगता है जैसे सरकार सो रही थी।"उच्च न्यायालय ने अब हिमाचल सरकार को एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया है जिसमें राज्य में संचालित सभी कंपनियों की सूची हो, जो सीएसआर दायित्वों के अंतर्गत आती हैं, साथ ही यह भी बताने के लिए कहा है कि किन कंपनियों ने योगदान दिया है और किन कंपनियों ने नहीं।
अदालत ने स्पष्ट किया कि सीएसआर फंड प्रतीकात्मक संकेत नहीं हैं बल्कि प्राकृतिक आपदाओं सहित समाज के कल्याण के लिए आवश्यक साधन हैं।
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