(मुस्कान भाटिया से)नयी दिल्ली , दिसंबर 16 -- 'अटल संस्मरण' एक ऐसा राजनीतिक वृत्तांत है जो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म शताब्दी वर्ष में श्रद्धांजलि के रूप में परिकल्पित घटनाओं का महज लेखा-जोखा बनकर नहीं रह जाता है बल्कि उनके बहुआयामी व्यक्तित्व, उनकी नेतृत्व शैली और गहन राजनीतिक दृष्टि को भी रेखांकित करता है। इस पुस्तक का विमोचन बुधवार को राजधानी में एक समारोह में किया जायेगा।
यह पुस्तक भारत के हालिया इतिहास के निर्णायक पलों को, लेखक अशोक टंडन के व्यक्तिगत अनुभवों के साथ बड़ी सहजता से जोड़ती है। श्री टंडन न सिर्फ बतौर पत्रकार, बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय में मीडिया सलाहकार के अपने कार्यकाल के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री के बहुत करीबी बन गये थे।
यह आख्यान श्री वाजपेयी के साथ लेखक के नजदीकी अनुभवों को आधार बनाकर उनका सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है, जो पारंपरिक राजनीतिक जीवनियों से परे है। यह पुस्तक, उनकी निजी बातचीत की अहम झलकियां पेश करती है। जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रभाव सर्वोपरि है, जिसका दखल अक्सर वाजपेयी जी की निजी संवेदनशीलता से मिलता भी था और कभी-कभी टकराता भी था। ये संस्मरण श्री वाजपेयी की सार्वजनिक छवि और उनकी निजी निष्ठाओं के बीच के जटिल संवाद को उजागर करते हैं।
इन संस्मरणाें में श्री वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल की कई निर्णायक घटनाओं को याद किया गया है जिनमें पोखरण परमाणु परीक्षण, कारगिल युद्ध, पाकिस्तान के साथ आगरा शिखर वार्ता और इंडियन एयरलाइंस विमान अपहरण जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं शामिल हैं। इन्हें राजनीतिक उथल पुथल के दौर में विपक्षी राजनीति की टिप्पणियों के साथ पेश किया गया है।
यह पुस्तक कालानुक्रमिक कथा के बजाय निकटता और दृष्टिकोण से आकार लेती स्मृति के रूप में है। सत्ता के गलियारों के बीच से गुजरते हुए लेखक ने पाठकों को 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षणों का जीवंत विवरण दिया है । एक ऐसी पहल जिसे पूर्व प्रधानमंत्री सावधानी या असमंजस से देखते रहे थे।
श्री वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने न केवल इन परीक्षणों को आगे बढ़ाया, बल्कि पश्चिमी खुफिया एजेंसियों की उपग्रह निगरानी को चकमा देते हुए इसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया। इस ऑपरेशन के परिणामस्वरूप, पश्चिमी देशों द्वारा भारत पर सामरिक और आर्थिक प्रतिबंध लगाये गये, फिर भी इसने भारत की सामरिक स्वायत्तता के निर्णायक उद्घोष को चिह्नित किया।
ऐसे समय में जब भारत एक जटिल एवं खंडित वैश्विक व्यवस्था से गुजर रहा है, ये स्मृतियां सिर्फ अतीत की थाह नहीं देतीं, बल्कि गूंजती हैं। यहां पेश पोखरण प्रसंग एक ऐसी राज्य नीति को रेखांकित करता है जो राजनीतिक संकल्प और सूझ-बूझ से भरा जोखिम एक साथ लिए हुए थी। ये गुण आज भारत की विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीतिक स्वायत्तता पर चल रही बहस के केंद्र में हैं।
'अटल संस्मरण' युवा पाठकों के समक्ष एक ऐसा नेतृत्व प्रस्तुत करता है जो दृढ़ता के साथ संयम का संतुलन बनाता है। श्री वाजपेयी के कार्यकाल से लिये गये प्रसंगों के माध्यम से पुस्तक बताती है कि कैसे एक राष्ट्र निर्णायक परंतु संवेदनशील नेतृत्व में राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर सकता है। इसके साथ ही जनता-केंद्रित पहलों को राजनीतिक अस्थिरता के बीच भी आगे बढ़ा सकता है। श्री वाजपेयी ने गैर-बहुमत वाली सरकार का नेतृत्व करते हुए न तो सत्ता का त्याग किया और न ही सहमति बनाने की भूमिका को छोड़ा, यह बार-बार उभरता हुआ विषय है। यह कृति शांति, सहयोग और स्थिरता तथा शांतिपूर्ण पड़ोस की आवश्यकता पर उनके निरंतर जाेर देने को भी रेखांकित करती है।
स्मरण किये गये सबसे मार्मिक क्षणों में से एक है, जब श्री वाजपेयी ने लाहौर में राज्यपाल भवन के लॉन से सीधा प्रसारण करते हुए पाकिस्तान की जनता को संबोधित किया था। उनके शब्द, "हम बहुत लड़ चुके। हम कब तक आपस में लड़ते रहेंगे? आइए, हम मिलकर गरीबी और बीमारी से लड़ें... हम दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं।" एक राजनेता की उस दृढ़ धारणा को दर्शाते हैं कि संवाद और विकास, सैन्य निवारण के साथ-साथ चलने चाहिए। यह प्रसंग संस्मरण के केंद्रीय तर्क को पुष्ट करता है कि नेतृत्व में दृढ़ता होने का अर्थ यह नहीं है कि करुणा या शांति की खोज का त्याग कर दिया जाए।
कुल मिलाकर श्री टंडन की यह कृति एक साथ दोहरी भूमिका निभाती है: यह एक नेता, एक व्यवसाय और उथल-पुथल तथा परिवर्तन से चिह्नित एक समयावधि का संस्मरण भी है और उसका वृत्तांत भी है।
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