रांची , अक्टूबर 15 -- झारखंड में इस वर्ष 20 अक्तूबर को मनाए जा रहे दीपोत्सव पर्व में विशेष रूप से पारंपरिक और प्राकृतिक दीयों की चमक देखने को मिलेगी।
रांची के घर-आंगन इस बार मिट्टी के टेराकोटा और गोबर से बने दीयों की रोशनी से जगमगाएंगे। खास बात यह है कि 90 महिलाओं की टीम सुकुरहुटू गोशाला, चापूटोला अरसंडे और धुर्वा सीठियो में मिलकर करीब 7 लाख दीयों का निर्माण कर रही है। ये दीये पूरी शुद्धता और पारंपरिक तरीके से तैयार किए जा रहे हैं।
रांची के सुकुरहुटू और बोड़ेया गांवों में गोबर से बने दीयों का उत्पादन मशीन के माध्यम से तेज गति से हो रहा है। कारीगर दीपावली तक दो लाख गोबर के दीयों का निर्माण करना चाहते हैं। बाजार में मिट्टी के टेराकोटा दीयों की कीमत 100 रुपये प्रति सैकड़ा है, जबकि फार्मा दीये 500 रुपये प्रति सैकड़ा या 5 रुपये प्रति पीस मिल रहे हैं। चाक से बने दीयों की कीमत 150 रुपये प्रति सैकड़ा और रंग-बिरंगे फैंसी दीयें 10 रुपये प्रति पीस उपलब्ध हैं।
वहीं, पारंपरिक चाक की कला खतरे में है। कुम्हारों ने बताया कि शहरीकरण के कारण मिट्टी की कमी और प्रदूषण ने इस कला को कमजोर कर दिया है। रांची में पारंपरिक चाक से बने दीयों की संख्या अब केवल 1 प्रतिशत रह गई है। शहर में मिट्टी, कोयला और लकड़ी की उपलब्धता में कमी के कारण मशीनों से बनने वाले दीयों की संख्या बढ़ गई है। इस समय ठाकुर गांव, नगड़ी, बोड़ेया, हरदाग, बलसगरा, पलामू और बंगाल से दीयों की आयात भी हो रही है।
विशेषज्ञों के अनुसार, गोबर और मशीन से बने दीयों के बढ़ते चलन ने कुम्हारों की पारंपरिक कला को धीरे-धीरे समाप्त कर दिया है। पहले हजारों कुम्हार परिवार दीपावली के दौरान चाक के दीये बनाते थे, अब इस व्यवसाय में केवल गिनती के कुम्हार ही बचे हैं।
पिछले वर्ष दीयों की कीमत 100-120 रुपये प्रति सैकड़ा थी, जबकि इस बार बढ़ती लागत के कारण 150-200 रुपये प्रति सैकड़ा तक पहुंचने की संभावना है। इस प्रकार, इस दीपोत्सव पर दीयों का व्यापार करोड़ों रुपये का हो सकता है, जिससे स्थानीय कुम्हारों और कारीगरों की आमदनी में भी वृद्धि होगी।
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