(जयंत रॉय चौधरी से)नयी दिल्ली , दिसंबर 26 -- दिवंगत प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निधन को आज एक वर्ष हो गया है लेकिन वह अपने पीछे एक ऐसी ज़बरदस्त विरासत छोड़ गये हैं जिसके कारण उनके प्रशंसक और आलोचक दोनों ही हैं।
वर्ष 2014 में जब श्री सिंह को चुनावी हार के बाद प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा, तो उन्होंने थोड़ी कड़वाहट के साथ कहा था, "इतिहास मेरे बारे में अच्छा फैसला करेगा"। समय के साथ बहुत से लोग श्री सिंह को उन स्थायी सकारात्मक परिवर्तनों के लिए याद करेंगे जो वह भारत की अर्थव्यवस्था और समाज में लाये और इनमें किसी तरह का कोई दिखावा नहीं था। इतिहास संभवतः आने वाले वर्षों में उन्हें और अधिक बेहतर तरीके से आंकेगा क्योंकि अर्थशास्त्री के तौर पर देश को बदलने, नौकरशाही नियंत्रण और आर्थिक स्थिरता से मुक्त करने के साथ-साथ अवसरों के एक नए युग के द्वार खोलने के लिये उनकी भूमिका अहम रही है।
जब मनमोहन सिंह 1991 में भारत के वित्त मंत्री बने तो देश दिवालिया होने से कुछ ही हफ़्ते दूर था। सोवियत संघ के टूटने से एक बड़ा व्यापारिक साझेदार खत्म हो गया था जबकि खाड़ी युद्ध के कारण वैश्विक तेल की कीमतें आसमान छू रही थीं।
यह वो वक्त था जब देश के विदेशी मुद्रा भंडार में सिर्फ एक बिलियन डॉलर से कुछ अधिक था, जिसका आशय था कि उसके पास केवल तीन सप्ताह के आयात के खर्चे के लिए विदेशी मुद्रा थी। मूडीज ने भारत की सॉवरेन रेटिंग को घटाकर 'जंक' (कबाड़) स्थिति में कर दिया था, और मुद्रास्फीति लगभग 14 प्रतिशत तक बढ़ गई थी, जिससे देश के बड़े मध्यम वर्ग को कड़ी मार पड़ी थी।
राष्ट्रीय संकट के क्षण में बुलाये गये, अर्थशास्त्री से केंद्रीय बैंक गवर्नर बने व्यक्ति ने निर्णायक रूप से कार्य किया। श्री सिंह के पहले कदमों में से एक दो किश्तों में रुपये का लगभग 20 प्रतिशत अवमूल्यन करना था, जिससे निर्यात को प्रोत्साहन मिला और भारत को टिके रहने के लिए अत्यंत आवश्यक विदेशी मुद्रा अर्जित करने में मदद मिली।
प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में 1991 से 1996 तक वित्त मंत्री के रूप में, श्री सिंह भारत के उदारीकरण के वास्तुकार बने। वे भारत का 'पेरेस्त्रोइका' (पुनर्गठन) संस्करण लेकर आये, जिससे नौकरशाही 'लाइसेंस-परमिट राज' को खत्म कर दिया गया जिसने लंबे समय से विकास को बाधित किया था।
जो परिणाम आए वो अभूतपूर्व थे। स्थिर भारतीय अर्थव्यवस्था एक 'फीनिक्स' की तरह उन ऊंचाइयों तक पहुंच गई जो तब तक अनसुनी थीं। भारत की सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) विकास दर जो तब तक सालाना औसतन केवल 3.5 प्रतिशत थी, नाटकीय रूप से बढ़कर सात प्रतिशत से अधिक हो गई, जो कभी-कभी 8.5 प्रतिशत से आगे निकल गयी।
इन सुधारों के गहरे सामाजिक परिणाम सामने आये जिससे ऑटोमोबाइल उद्योग फला-फूला और वैश्विक तथा घरेलू निर्माताओं ने देश भर में कारखाने स्थापित किए। मध्यम वर्ग के लिए कारें सस्ती हो गईं, जबकि दोपहिया वाहन निम्न-आय वाले परिवारों तक पहुंच गए। परिवार जो कभी भीड़भाड़ वाले सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर थे, अब मारुति, देवू या टाटा के मालिक बन सकते थे, जो बदलते भारत के प्रतीक थे।
बढ़ती आय ने आहार संबंधी आदतों में सुधार किया, प्रोटीन की खपत में वृद्धि हुई, जबकि इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जो कभी आय के सापेक्ष उच्च कीमतों के कारण विलासिता थे, घरेलू आवश्यक वस्तुएं बन गए क्योंकि प्रतिस्पर्धा ने लागत को कम कर दिया।
शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि श्री सिंह ने भारत को दुनिया के लिए खोल दिया। विशाल जनसंख्या आधार के लिए जाने जाने वाले राष्ट्र में विकास की नई कहानी से प्रोत्साहित होकर अंतरराष्ट्रीय निवेशक देश की ओर उमड़ पड़े। साथ ही भारतीय कंपनियों ने विदेशों में विस्तार किया, भारत के सामान, प्रतिभा और विशेषज्ञता का प्रदर्शन किया, और प्रशिक्षित आईटी कर्मियों और सस्ते में उत्पादित जन-बाजार वस्तुओं की अपनी पेशकश से दुनिया को प्रभावित किया।
राष्ट्र एक वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में फिर से उभरा, जो एक कसकर नियंत्रित लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था से प्रौद्योगिकी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और रोबोटिक्स के युग में परिवर्तित हो गया। हालांकि, श्री सिंह को केवल एक "आर्थिक विशेषज्ञ से प्रधानमंत्री बने" व्यक्ति के रूप में खारिज करना सदी का छोटी बात कह देना होगा।
उन्होंने खुद को एक कुशल राजनेता और सम्मानित वैश्विक राजनेता साबित किया। साल 2004 में, जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद को अस्वीकार कर दिया, तो श्री सिंह ने पद ग्रहण किया। उन्होंने उन्हें पार्टी के मामलों का प्रबंधन करने की अनुमति दी जबकि उन्होंने शासन पर ध्यान केंद्रित किया और प्रणब मुखर्जी के विशाल अनुभव के साथ सरकार के दैनिक कामकाज की देखरेख की।
श्री सिंह की प्रमुख उपलब्धियों में से एक भारत को वैश्विक परमाणु दायरे में लाना था। सन 1974 में परमाणु शक्ति बनने के बावजूद, भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग रहा था। अमेरिका के साथ श्री सिंह की बातचीत ऐतिहासिक नागरिक-परमाणु समझौते के रूप में परिणत हुई, जिसने वामपंथी सहयोगियों के कड़े विरोध के बावजूद भारत को एक विशेष वैश्विक क्लब के भीतर रखा, जिन्होंने अंततः उनकी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया।
अमेरिका के साथ सफल वार्ताओं ने भारत को विशेष परमाणु क्लब में स्थान दिलाया भले ही उनके वामपंथी सहयोगियों ने कड़ा विरोध किया था। विचारों के पक्के इन दलों ने इस सौदे पर उनका साथ छोड़ दिया, जिससे उन्हें ममता बनर्जी को अपने सहयोगी के रूप में चुनने के लिए मजबूर होना पड़ा।
सन 2008 के मुंबई हमलों के बाद, श्री सिंह ने पाकिस्तान के शासकों और उनके प्रतिनिधियों को अलग-थलग करने के लिए कूटनीतिक रणनीति का इस्तेमाल किया जिससे एक क्षेत्रीय मुद्दे को वैश्विक मुद्दे में बदल दिया गया। इसने भारत को सैन्य कार्रवाई का सहारा लिए बिना नये सहयोगी हासिल करने और अपनी स्थिति मजबूत करने की अनुमति दी।
हालांकि, श्री सिंह का दूसरा कार्यकाल बढ़ते सार्वजनिक असंतोष से प्रभावित रहा क्योंकि कैबिनेट मंत्रियों से जुड़े भ्रष्टाचार के घोटालों ने विश्वास को कम किया, जबकि एक मुखर विपक्ष द्वारा निरंतर संसदीय बाधा ने नीतिगत पक्षाघात और सापेक्ष आर्थिक मंदी को जन्म दिया।
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें प्रसिद्ध रूप से भारत का "सबसे कमजोर प्रधानमंत्री" कहा था। श्री सिंह यह दावा करते हुए अपने रिकॉर्ड के साथ खड़े रहे कि उनकी सरकार ने राष्ट्र के सर्वोत्तम हित में कार्य किया था।
श्री सिंह ने वास्तव में छवि निर्माण की कला को आगे बढ़ाने में संघर्ष किया। वे अपनी उपलब्धियों को प्रभावी ढंग से संप्रेषित करने में विफल रहे मगर उनकी कई नीतियों को वर्षों बाद ही पूरी तरह से सराहा गया।
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