पश्चिमी चंपारण , नवंबर 13 -- गंडक नदी की तलहटी में बसे बैजुआ गांव में लोकतंत्र का उत्सव इस बार भी संघर्ष के बीच ही मनाया गया।
बिहार के पश्चिमी चंपारण में करीब चार हजार की आबादी वाले बैजुआ गांव में ज्यादातर लोग खेती और पशुपालन पर निर्भर हैं। यादव समुदाय की बहुलता वाले इस इलाके में जब गंडक उफनती है तो पूरा गांव पलायन कर जाता है। बाढ़ मिट्टी बहा ले जाती है, घर फिर से बनते हैं और फिर अगली बरसात वही कहानी दोहराती है।
लेकिन इन तमाम मुश्किलों के बावजूद बैजुआ के लोग वोट डालने से नहीं चूके। गांव में पोलिंग बूथ के लिए कोई पक्का भवन नहीं था, इसलिए बूथ संख्या 130 और 131 को बांस और तिरपाल से बने टेंट में तैयार किया गया। यही टेंट इस बार लोकतंत्र के मंदिर बन गए।
बूथों पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के सात जवान तैनात थे। इलाके को संवेदनशील माना गया है, जहां न मोबाइल नेटवर्क काम करता है, न बिजली की सुविधा है। सुरक्षा और पारदर्शिता की सीमित व्यवस्था के बीच मतदान हुआ।
सुबह से ही मतदाता खुले आसमान के नीचे लंबी कतारों में खड़े दिखे। महिलाएं, बुजुर्ग और युवा सभी ने उत्साह के साथ मतदान किया। कुछ राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता मतदाताओं को खाना परोसते नजर आए, जो चुनाव आचार संहिता की अनदेखी थी, लेकिन प्रशासन की प्राथमिकता केवल शांतिपूर्ण मतदान कराना थी।
सुबह के वक्त पेट्रोलिंग दल ट्रैक्टर पर सवार होकर गांव की ओर बढ़ रहा था। वही ट्रैक्टर जो किसान खेत जोतने में इस्तेमाल करते हैं, यहां पुलिस और मतदान कर्मियों का एकमात्र वाहन बन गया है।
यहां ड्यूटी पर तैनात एक अधिकारी ने बताया कि, 'एक बूथ तक पहुंचने में चार घंटे लगते हैं। बारिश के बाद रास्ता ही बदल जाता है। कीचड़ महीनों तक सूखता नहीं।' वहीं उनके साथ मौजूद एक महिला सिपाही ने कहा कि, 'यहां ड्यूटी निभाना सबसे मुश्किल है। ना सड़क है, ना छाया। पैरों में लगा कीचड़ उतरता ही नहीं है।'गांव की ओर जाते रास्ते में तीन ट्रैक्टर मिले, जिन पर महिलाएं और पुरुष बैठे थे। सभी नदी पार कर वोट डालने जा रहे थे। उनमें से लगभग 50 वर्षीय एक महिला ने मुस्कराते हुए कहा कि, 'साहब कहते हैं डेढ़ किलोमीटर में बूथ देंगे, पर हम 9 किलोमीटर चल के वोट देते हैं। बिजली- सड़क नहीं है, लेकिन वोट जरूर देंगे।'एक महिला मतदाता बोलीं, 'सरकार वाले वोट मांगने आते हैं, लेकिन चुनाव के बाद कोई नहीं दिखता। गैस मिली है, पर चूल्हा अब भी लकड़ी का जलता है। अस्पताल 10 किलोमीटर दूर है।'कीचड़ में ट्रैक्टर आगे बढ़ रहा था, बच्चे हंस रहे थे पर यह उनके जीवन का खेल नहीं, मजबूरी का दृश्य था। एक मतदाता ने कहा, 'हमने 9 किलोमीटर चलकर वोट दिया। आजाद देश में भी गुलामी झेल रहे हैं। सड़क और बिजली अब भी सपना हैं।'रास्ता ऐसा था मानो नदी के भीतर चलना पड़ रहा हो। कई जगह नाव से पार कर जंगल के रास्ते बूथ तक पहुंचना पड़ा।
दियारा इलाके में ट्रैक्टर और बाइक तो चलते हैं, लेकिन पेट्रोल पंप नहीं। एक युवक बोला, 'पानी सब बहा ले जाता है, इसलिए बोतल में पेट्रोल लाते हैं। पुल बनेगा तो पंप भी बनेगा, पर सारे वादे अधूरे हैं।'घाट पर महिलाएं नाव में बैठी थीं। उन्होंने कहा, 'वोट तो दे रहे हैं, अब नाव और पक्का घाट भी दिलवा दीजिए। रोज जान जोखिम में पड़ती है।'बैजुआ पंचायत के बैजूपुर टोले में सिर्फ 15- 20 झोपड़ियां हैं। वहां न बिजली है, न साफ पानी। एक परिवार ने मिट्टी के घर के बाहर सोलर पैनल दिखाया, मजदूरी कर खरीदा हुआ। उज्ज्वला योजना का सिलेंडर धूल में पड़ा था, पास में लकड़ी का चूल्हा जल रहा था।
एक बुजुर्ग बोले, 'बच्चा 7 किलोमीटर दूर स्कूल जाता है। बीमार होता है तो नाव से ले जाना पड़ता है। सरकार कोई नहीं पूछता, पर वोट देना हमारा धर्म है।'बूथ नंबर 131 पर एक युवा गुस्से में बोला, '10 साल से विधायक है, कुछ नहीं बदला। देखिए, ईवीएम खुले में रखी है यहां सब कुछ खुला है, दुख भी।'टेंट की छांव में रखी मशीन के पास चूल्हा जल रहा था और लोग लोकतंत्र का उत्सव मना रहे थे।
गांव के लोगों की आंखों में गुस्सा और लाचारी दोनों दिखती है। एक बुजुर्ग मतदाता बोले, 'आज़ाद देश में भी गुलामी झेल रहे हैं। नेता मुस्कुराकर वोट लेकर चले जाते हैं और फिर भूल जाते हैं कि हम भी इंसान हैं। सड़क- बिजली अब तक सपना है। गर्भवती महिलाएं रास्ते में ही दम तोड़ देती हैं।'बैजुआ की महिलाएं नाव में बैठकर नदी पार करती हैं, फिर ट्रैक्टर से कीचड़ भरे रास्ते तय करती हैं। उनके लिए वोट डालना एक अधिकार से ज़्यादा जिद और भरोसे की यात्रा है।
बूथों तक पहुंचने के लिए कोई सड़क नहीं, बिजली नहीं और मोबाइल नेटवर्क भी गायब।
बैजुआ के लोगों ने हर बार की तरह इस बार भी वोट दिया है इस उम्मीद के साथ कि शायद अगली बार उनके गांव तक विकास की नाव भी पहुंचे।
बाढ़, कीचड़ और बदहाली से जूझते बैजुआ गांव में मतदान पूरी तरह शांतिपूर्ण रहा। यह सिर्फ चुनाव नहीं, बल्कि उन लोगों की जिद और उम्मीद की कहानी है जो कठिनाइयों के बीच भी लोकतंत्र को जीते हैं।
बैजुआ आज भी बिहार के आखिरी सिरे पर खड़ा वह गांव है, जहां विकास के वादे बार- बार बह जाते हैं, मगर वोट देने की आस्था हर बार लौट आती है।
हिंदी हिन्दुस्तान की स्वीकृति से एचटीडीएस कॉन्टेंट सर्विसेज़ द्वारा प्रकाशित