नयी दिल्ली , अक्टूबर 07 -- उच्चतम न्यायालय ने देश भर के अधीनस्थ न्यायपालिकाओं में न्यायिक अधिकारियों की पदोन्नति और अन्य सुविधाएं प्रदान करने से संबंधित विवाद मामले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष रखने का मंगलवार को फैसला किया।
मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने न्यायिक अधिकारियों की सेवा शर्तों, वेतनमान और पदोन्नति से संबंधित मुद्दों पर अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए यह संदर्भ आदेश पारित किया।
पीठ की ओर से मुख्य न्यायाधीश ने (सुनवाई के दौरान) दोनों पक्षों द्वारा उठाई गई चिंताओं को स्वीकार किया, लेकिन एक उचित संतुलन बनाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "एक युवा न्यायिक अधिकारी जो 25 या 26 वर्ष की आयु में सेवा में प्रवेश करता है और केवल एक अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त होता है। उसे स्वाभाविक रूप से कुछ हद तक निराशा होगी।" उन्होंने ज़ोर दिया कि न्याय प्रशासन की दक्षता बढ़ाने के लिए किसी प्रकार का संतुलन और कोई मध्यमार्ग आवश्यक है।
पीठ ने आगे कहा, "किसी भी स्थिति में पूरे विवाद को सुलझाने और एक स्थायी समाधान के लिए हमारा विचार है कि इस मुद्दे पर पांच न्यायाधीशों वाली एक संविधान पीठ द्वारा विचार किया जाए।"शीर्ष अदालत ने कहा कि न्यायपालिका में प्रवेश स्तर के पदों पर शामिल होने वालों के लिए उपलब्ध सीमित पदोन्नति के अवसरों को दूर करने के लिए एक व्यापक समाधान की आवश्यकता है।
पीठ ने कहा कि इस मुद्दे पर शीर्ष अदालत द्वारा पहले जारी किए गए नोटिसों के जवाब में कई उच्च न्यायालयों और राज्य सरकारों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किए थे।
शीर्ष अदालत ने कहा, "कुछ उच्च न्यायालयों का मानना है कि मौजूदा स्थिति के कारण (जो न्यायाधीश शुरुआत में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के रूप में सेवा में आते हैं) वे ज़िला न्यायाधीश के पद तक पहुंचने की स्थिति में नहीं होते।"पीठ ने कई राज्यों में व्याप्त "विषम स्थिति" का संज्ञान लिया, जहाँ न्यायिक अधिकारी (जो न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (जेएमएफसी) के रूप में अपना करियर शुरू करते हैं) अक्सर प्रधान ज़िला न्यायाधीश (पीडीजे) के पद तक पहुँचने से पहले ही सेवानिवृत्त हो जाते हैं।
पीठ ने कहा कि ऐसे हालात में उनके बारे में उच्च न्यायालय की पीठ में पदोन्नति की बात ही छोड़ दें।
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