भोपाल , दिसंबर 21 -- भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था लंबे समय से एक बुनियादी विरोधाभास से जूझ रही है। एक ओर हमारे विश्वविद्यालयों और कॉलेजों से वैश्विक स्तर की गुणवत्ता, शोध और नवाचार की अपेक्षा की जाती है, वहीं दूसरी ओर उन पर ऐसे नियामक ढांचे लागू रहे हैं जो स्वायत्तता और अकादमिक स्वतंत्रता को सीमित करते हैं। इसी पृष्ठभूमि में संसद में प्रस्तुत विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025 को उच्च शिक्षा सुधार की दिशा में एक आवश्यक, समयोचित और दूरगामी कदम के रूप में देखा जाना चाहिए। यह विचार इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के उपनिदेशक डॉ. अमित कुमार श्रीवास्तव ने व्यक्त किए।

पूर्व निदेशक अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) रहे डॉ. अमित कुमार श्रीवास्तक ने कहा कि पिछले कई दशकों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद तथा अन्य नियामक निकायों की समानांतर भूमिकाओं ने उच्च शिक्षा के संचालन को जटिल बना दिया। संस्थानों की ऊर्जा शिक्षा, शोध और नवाचार के बजाय अनुपालन, निरीक्षण और फाइलों में उलझी रही। नया विधेयक इस मूल समस्या को पहचानता है और नियमन, गुणवत्ता मूल्यांकन तथा शैक्षणिक मानकों को तीन अलग-अलग परिषदों में स्पष्ट रूप से विभाजित करता है। यह ढांचा हितों के टकराव को कम करने के साथ-साथ निर्णय प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की क्षमता रखता है।

डॉ. श्रीवास्तव ने कहा कि विधेयक का सबसे सकारात्मक और परिवर्तनकारी पक्ष ग्रेडेड स्वायत्तता की अवधारणा है। लंबे समय से यह महसूस किया जा रहा था कि सभी संस्थानों पर एक जैसे नियम लागू करना न तो न्यायसंगत है और न ही प्रभावी। अच्छे प्रदर्शन करने वाले संस्थानों को अधिक अकादमिक, प्रशासनिक और वित्तीय स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। यह विधेयक इसी सोच को संस्थागत रूप देता है। स्वायत्तता का अर्थ मनमानी नहीं, बल्कि परिणामों के प्रति अधिक जवाबदेही है। जब संस्थानों को अपने पाठ्यक्रम, शोध प्राथमिकताओं और शैक्षणिक सहयोग तय करने की स्वतंत्रता मिलेगी, तभी वे नवाचार और वैश्विक सहभागिता की दिशा में आगे बढ़ पाएंगे।

उन्होंने बताया कि कुछ आशंकाएं यह भी व्यक्त की जा रही हैं कि कमजोर और संसाधन-विहीन कॉलेज इस व्यवस्था में पिछड़ सकते हैं। इन चिंताओं को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन यह समझना जरूरी है कि विधेयक का उद्देश्य केवल प्रतिस्पर्धा बढ़ाना नहीं, बल्कि क्षमता निर्माण को भी प्रोत्साहित करना है। स्पष्ट मानक, पारदर्शी मूल्यांकन और मार्गदर्शन की व्यवस्था ऐसे संस्थानों के लिए सुधार और उन्नयन का अवसर प्रदान करती है, जो अब तक हाशिये पर रहे हैं।

पारदर्शिता और सार्वजनिक प्रकटीकरण से जुड़े प्रावधानों को भी व्यापक संदर्भ में देखना चाहिए। आज छात्र और अभिभावक यह जानना चाहते हैं कि किसी संस्थान की वास्तविक स्थिति क्या है-शिक्षकों की गुणवत्ता, शैक्षणिक परिणाम और वित्तीय विश्वसनीयता कैसी है। सार्वजनिक जानकारी उपलब्ध होने से शिक्षा के व्यावसायीकरण पर अंकुश लगेगा और व्यवस्था में भरोसा बढ़ेगा। यह सही है कि इससे प्रशासनिक जिम्मेदारियां बढ़ेंगी, लेकिन गुणवत्ता की कीमत चुकाए बिना सुधार संभव नहीं।

विधेयक में परिणाम आधारित प्रत्यायन और सीखने के नतीजों पर जोर भारतीय उच्च शिक्षा को अंतरराष्ट्रीय मानकों के करीब लाने का प्रयास है। इसके साथ ही भारतीय ज्ञान परंपरा, भाषाओं और संस्कृति को आधुनिक, बहुविषयक शिक्षा से जोड़ने की पहल यह संकेत देती है कि सुधार केवल बाहरी मॉडल की नकल नहीं, बल्कि आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने की कोशिश है। इस संतुलन को बनाए रखना भविष्य की सफलता के लिए निर्णायक होगा।

छात्र हितों की सुरक्षा इस विधेयक की एक महत्वपूर्ण और मानवीय विशेषता है। यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी दंडात्मक कार्रवाई का प्रतिकूल प्रभाव छात्रों की पढ़ाई, डिग्री या भविष्य पर नहीं पड़ेगा। सुधारों के दौर में छात्रों की शैक्षणिक निरंतरता सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक है, और यह प्रावधान उसी दिशा में भरोसा पैदा करता है।

डॉ. श्रीवास्तव ने निष्कर्ष में कहा कि विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अवसर देना और उच्च प्रदर्शन करने वाले भारतीय विश्वविद्यालयों को विदेशों में अपने परिसर स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना शिक्षा को वैश्विक संदर्भ से जोड़ता है। यदि समान और निष्पक्ष मानकों के साथ यह कदम लागू किया गया, तो इससे गुणवत्ता, प्रतिस्पर्धा और अंतरराष्ट्रीय सहयोग तीनों को बढ़ावा मिलेगा।

अंततः, विकसित भारत का लक्ष्य केवल आर्थिक प्रगति तक सीमित नहीं है। इसकी नींव एक ऐसी उच्च शिक्षा प्रणाली पर टिकी है जो स्वतंत्र सोच, शोध, नवाचार और वैश्विक दृष्टि को बढ़ावा दे। विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025 इसी नींव को मजबूत करने का प्रयास है। यदि इसे सही भावना, लचीलापन और प्रभावी क्रियान्वयन के साथ लागू किया गया, तो यह आने वाले दशकों में भारतीय उच्च शिक्षा की दिशा और दशा दोनों को निर्णायक रूप से बदल सकता है।

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