जालंधर , अक्टूबर 16 -- राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के सलाहकार डॉ नरेश पुरोहित ने जर्नल ऑफ साइकोलॉजी एंड साइकोथेरेपी में 'डिजिटल युग में दीप पर्व का मनोविज्ञान' शीर्षक से प्रकाशित अपनी शोध रिपोर्ट के आधार पर बताया कि दीपावली अब दीपों की नहीं, सजावट की पोस्टों की रात है।
उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अब त्योहार पूजा, मिलन और आत्मिक उल्लास का नहीं, बल्कि 'कंटेंट' का मौसम बन गये हैं। दीपावली के दीपक की लौ से ज़्यादा रोशनी अब मोबाइल फोन की फ्लैश में दिखती है। भक्ति, व्रत और परंपरायें अब फ़िल्टर और फ्रेम में सिमट गयी हैं। सच्ची आस्था और दिखावे के बीच की यह डिजिटल खाई हमारी आत्मा को धीरे-धीरे खोखला कर रही है।
उन्होंने कहा कि दीपावली अब दिल से नहीं, डिस्प्ले से मनाई जाती है। 'सेल्फ़ी संस्कृति' धीरे-धीरे उस आध्यात्मिक गहरायी को खा रही है जो भारतीय समाज की पहचान थी। उन्होंने कहा कि दीपावली अब ऑनलाइन खरीदारी पर्व है। अब त्योहार आत्मा का नहीं, छवि का दर्पण बन गये हैं। बाज़ार ने भी इस प्रवृत्ति को भुनाने में देर नहीं लगायी।
डॉ पुरोहित ने बताया कि त्योहार हमारे समाज की आत्मा होते हैं। वह समय जब मनुष्य ईश्वर, प्रकृति और अपने संबंधों के प्रति आभार व्यक्त करता है, लेकिन अब हर त्योहार के साथ एक नया किरदार जुड़ गया है, वह है मोबाइल कैमरा। आस्था अब आत्मा से नहीं, प्रसारण से चलती है। लोग 'सेल्फ़ी विद लक्ष्मी', करवा चौथ ,भाई दूज मोमेंट्स जैसे टैग से उत्सव मनाते हैं। घरों की सफ़ाई से ज़्यादा लोग कैमरे का कोण सुधारने में व्यस्त रहते हैं। माता लक्ष्मी की प्रतिमा की पूजा से पहले "बूमरैंग" बनता है, और पटाखों से पहले "कैप्शन" तय होता है। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट में बताया कि त्योहार अब प्रेम का नहीं, प्रदर्शन का पर्व बन गया है। ऐसा लगता है मानो हर व्यक्ति का त्योहार सोशल मीडिया पर दिखना चाहिए, वरना वह अधूरा है। यह डिजिटल प्रतिस्पर्धा अब भक्ति से ज़्यादा 'लाइक' का खेल बन चुकी है।
रिपोर्ट के अनुसार मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो यह डिजिटल आस्था एक गहरी बेचैनी का परिणाम है। इंसान अब अपने हर अनुभव का प्रमाण सोशल मीडिया से चाहता है। उसे लगता है कि अगर कोई चीज़ कैमरे में नहीं आई तो वह हुई ही नहीं। यही कारण है कि अब त्योहारों में मुस्कान असली नहीं, अभ्यास की हुई होती है। बच्चे तक कैमरे के सामने हैप्पी दिवाली बोलना सीख चुके हैं। रिश्तों की गर्माहट अब कैमरे की ठंड में जम गयी है। उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया पर दिखावे की इस होड़ ने समाज में एक अजीब-सी भावनात्मक दूरी पैदा कर दी है। लोगों को लगता है कि उन्होंने दूसरों की फोटो देखकर उनसे जुड़ाव बना लिया, जबकि असल में वह जुड़ाव एक भ्रम है। त्योहार जो कभी सबको साथ लाते थे, अब लोगों को अकेला कर रहे हैं। हर कोई अपने फोन में बंद है, दूसरे की मौजूदगी सिर्फ स्क्रीन पर है। 'परिवार की फोटो' तो पूरी है, लेकिन परिवार बिखरा हुआ है।
डॉ पुरोहित ने कहा कि त्योहार अब मानव को जोड़ने की बजाय, तुलना और प्रतिस्पर्धा का कारण बनते जा रहे हैं।यह सब उस आत्मीयता को निगल गया है, जो कभी परिवारों की पहचान थी। एक समय त्योहारों का असली अर्थ था रुकना, सांस लेना और जुड़ना। वर्तमान में यह अर्थ बदल गया है, सजना, पोस्ट करना, भूल जाना।
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