दरभंगा , नवंबर 29 -- तमिलनाडु हिन्दी साहित्य अकादमी के महासचिव एवं राष्ट्रीय स्तर पर जाने-माने साहित्यकार ईश्वर करुण ने कहा कि तमिलनाडु के भौगोलिक परिवेश में रचित हिन्दी साहित्य और अनूदित हिन्दी साहित्य हमें आपस में मिलाता है और इस पर शोध की आवश्यकता है।
श्री करूण ने ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग की तरफ से प्रो. उमेश कुमार की अध्यक्षता में आयोजित 'दक्षिण भारत का हिन्दी साहित्य' विषयक एकल व्याख्यान में दक्षिण भारतीय हिन्दी साहित्य और उत्तर भारतीय हिन्दी साहित्य के अंतर्संबंधों के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि साहित्य हमें आपस में मिलता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि का राजनीति में पदार्पण है, जो हिन्दी विरोध से हुआ था। उन्होंने कहा कि उसी मुख्यमंत्री ने बाद में कम्ब रामायण के संस्कृत अनुवाद का लोकार्पण किया था, साथ ही संतकवि तिरूवल्लुअर रचित 1320 तिरूक्कुरल (दोहों) का हिन्दी अनुवाद सरकारी खर्च पर करवाया। राजनीति की विडंबना देखिए कि उस अनुदित पुस्तक का लोकार्पण पटना में करवाया गया। उन्होंने कहा कि यह माना जाता है कि तमिलनाडु में केवल हिन्दी विरोध है, लेकिन वह खुद वहां पिछले चालीस वर्षों से हिन्दी की सेवा कर रहे हैं ।
श्री करुण ने कहा कि तमिल और हिन्दी के बीच एक सेतु के रूप में वहां के समाज ने उन्हें स्वीकार किया है। उन्होंने कहा कि तमिलनाडु में इस बात का रोष रहता है कि दक्षिण भारत के हिन्दी साहित्य का हिन्दी साहित्य के इतिहास में अलग से उल्लेख नहीं मिलता है। इस पक्ष पर विचार करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि बहुत सारी साहित्यिक कृतियों का कथानक दक्षिण के साहित्य से प्रभावित है। मिसाल के तौर पर अमृतलाल नागर कृत 'सुहाग के नूपुर' वहां की लोकप्रिय रचना 'सिलप्पदिकारम' से प्रेरित है। ऐसे बहुत से साहित्यकार हैं जिन्होंने उत्तर और दक्षिण भारत के साहित्य के बीच सेतु का काम किया है। इस श्रृंखला में एम. सुन्दरम जैसे विद्वान का जिक्र लाज़मी है, जिन्होंने दक्षिण में मीरा को तथा उत्तर में आंडाल को पहुँचाया। वहां के लोकप्रिय गीतकार एवं कवि वैरमुत्तू ने बहुत प्रयास करके अपनी कविताओं का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवाया। उनकी कविताओं का अनुवाद करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ।
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