लखनऊ , नवंबर 01 -- गंगा और उसकी जीवनदायिनी वेटलैंड्स के संरक्षण को और अधिक मज़बूत बनाने की दिशा में राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने एक व्यापक तकनीकी पहल का आगाज़ किया है। इस पहल के तहत उन्नत उपकरणों और डिजिटल तकनीकों का उपयोग कर संकटग्रस्त प्रजातियों की निगरानी, संरक्षण प्रयासों की प्रभावशीलता और समुदाय-आधारित सहभागिता में ऐतिहासिक सुधार लाने का लक्ष्य रखा गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस पहल से गंगा क्षेत्र की जैव विविधता को सुरक्षित रखने की दिशा में गेमचेंजर परिणाम सामने आ सकते हैं।

उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य स्थित गरैता केंद्र पर "स्पैटियल मॉनिटरिंग एंड रिपोर्टिंग टूल" (स्मार्ट) की शुरुआत ने संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण प्रयासों को नई दिशा दी है। कछुए, घड़ियाल, भारतीय स्किमर और डॉल्फिन जैसी प्रजातियों की निगरानी अब स्मार्ट सिस्टम के जरिए वास्तविक समय में हो रही है। इस सिस्टम के तहत तैयार स्मार्ट लैब और वर्कस्टेशन गश्ती गतिविधियों को डिजिटली रिकॉर्ड करता है और जीआईएस मानचित्रण, डेटा विश्लेषण तथा रिपोर्टिंग सुविधाएँ उपलब्ध कराता है। अधिकारियों का कहना है कि इससे न केवल गश्त में तेजी आई है, बल्कि पारदर्शिता और जवाबदेही भी सुनिश्चित हुई है। यह पहल फ्रंटलाइन कर्मचारियों की कार्यकुशलता को बढ़ाने के साथ-साथ संरक्षण नीतियों को मजबूत आधार प्रदान कर रही है।

गंगा से जुड़े वेटलैंड्स नदी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और अब इन्हें जीआईएस और रिमोट सेंसिंग जैसे आधुनिक उपकरणों के माध्यम से लगातार मॉनिटर किया जाएगा। ये तकनीकें वेटलैंड्स की सीमाओं के निर्धारण, परिवर्तनों की पहचान और पुनर्स्थापन योजनाओं की निगरानी में सहायता करेंगी। विशेषज्ञों का कहना है कि अब गाद हटाने (डिसिल्टिंग), वनस्पति पुनर्स्थापन और जैव विविधता संवर्धन जैसे हस्तक्षेप अधिक वैज्ञानिक और योजनाबद्ध तरीके से किए जा सकेंगे। यह डिजिटल निगरानी प्रणाली वेटलैंड्स के दीर्घकालिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करेगी और संरक्षण से जुड़े निर्णयों के लिए ठोस आंकड़े उपलब्ध कराएगी।

राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने विलुप्तप्राय और प्रमुख प्रजातियों की निगरानी के लिए एक उन्नत ट्रैकिंग प्रणाली लागू की है। रेडियो टेलीमेट्री, एकॉस्टिक टेलीमेट्री, पीआइटी टैग्स और जीपीएस तकनीक के माध्यम से जानवरों की आवाजाही, प्रवासन मार्ग और जीवित रहने की दर से संबंधित आंकड़े एकत्र किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, रिमोट सेंसिंग और जीआईएस मैपिंग के जरिए कछुओं के घोंसले वाले स्थलों और डॉल्फिन हॉटस्पॉट जैसे आवासों की पहचान और निगरानी की जा रही है।

स्थानीय समुदायों को मोबाइल ऐप्स और सिटिजन साइंस पहलों के माध्यम से जोड़ा जा रहा है, जिससे वे कछुओं के अंडों की सुरक्षा, पक्षियों के प्रवास का अवलोकन और मछली संसाधनों की निगरानी जैसी गतिविधियों में भाग ले सकें। अब संरक्षण केवल वैज्ञानिक संस्थानों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह जन-आधारित आंदोलन के रूप में विकसित हो रहा है।

वन्यजीवों के बचाव और पुनर्वास के लिए जीपीएस-सक्षम प्रोटोकॉल तैयार किए गए हैं। इस प्रोटोकॉल के तहत बचाए गए और पुनर्वासित जीवों का रिकॉर्ड डिजिटल डेटाबेस में दर्ज किया जाता है। इससे सुनिश्चित होता है कि किसी भी जानवर की स्थिति को वास्तविक समय में ट्रैक किया जा सके और पुनर्वास की प्रक्रिया अधिक पारदर्शी तथा प्रभावी हो सके। विशेषज्ञों का कहना है कि यह कदम संकटग्रस्त प्रजातियों को सुरक्षित जीवन देने की दिशा में एक ठोस उपाय है।

विशेषज्ञों के अनुसार तकनीकी समाधानों की यह व्यापक श्रृंखला केवल निगरानी और प्रबंधन को उन्नत नहीं कर रही, बल्कि स्थानीय समुदायों को भी इसमें सीधे तौर पर जोड़ रही है। नागरिक विज्ञान परियोजनाओं, प्रशिक्षण शिविरों और मोबाइल ऐप्स की मदद से गंगा तटवर्ती गांवों के लोग अब सक्रिय रूप से संरक्षण अभियानों में शामिल हो रहे हैं। मछुआरे, किसान और ग्रामीण न केवल अवैध गतिविधियों की सूचना दे रहे हैं बल्कि कछुआ घोंसलों और पक्षियों के प्रवास स्थलों की सुरक्षा में भी योगदान दे रहे हैं।

इन पहलों ने "गंगा बचाओ" अभियान को सिर्फ सरकारी योजना से आगे बढ़ाकर साझा ज़िम्मेदारी का रूप दे दिया है। विशेषज्ञ मानते हैं कि जब स्थानीय समुदायों को जिम्मेदारी और निर्णय लेने का अवसर मिलता है, तो वे संसाधनों के स्वाभाविक संरक्षक बन जाते हैं। इससे संरक्षण प्रयास और अधिक टिकाऊ और दीर्घकालिक हो जाते हैं।

राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन की यह पहल गंगा और उसकी सहायक वेटलैंड्स की पारिस्थितिक और सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने की दिशा में ऐतिहासिक साबित हो रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह तकनीकी हस्तक्षेप न केवल संकटग्रस्त प्रजातियों को बचाने में कारगर साबित होगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए गंगा की जैव विविधता को संरक्षित करने की मजबूत नींव भी रखेगा। इससे संरक्षण कार्यों में अधिक पारदर्शिता, जवाबदेही और सामूहिक सहभागिता संभव हो पाएगी।

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