दरभंगा , दिसम्बर 24 -- बिहार के प्रतिष्ठित ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. अनुरंजन ने बुधवार को कहा कि अरावली पर्वतमाला मात्र भू-वैज्ञानिक संरचना नहीं, बल्कि उत्तर-पश्चिमी भारत के लिए जीवन-समर्थन तंत्र है और इसका क्षरण जलवायु स्थिरता और आजीविकाओं के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करता है।
विभागाध्यक्ष डॉ. अनुरंजन ने ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग एवं डॉ. प्रभात दास फॉउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित "अरावली घेराबंदी में विकास और संरक्षण के बीच संतुलन" विषयक एक दिवसीय सेमिनार की अध्यक्षता करते हुए कहा कि अरावली पर्वत का संरक्षण, पुनर्स्थापन पारिस्थितिक और आर्थिक तथा सभ्यतागत अनिवार्यता है, जिसके लिए परिदृश्य-स्तरीय संरक्षण एवं समुदाय-आधारित पुनर्स्थापन आवश्यक है।
डॉ. अनुरंजन ने कहा कि पहले केवल राजस्थान राज्य के अरावली क्षेत्र में खनन को विनियमित करने के लिये औपचारिक रूप से अधिसूचित परिभाषा मौजूद थी। यह वर्ष 2002 की राज्य समिति की रिपोर्ट पर आधारित थी, जिसमें अमेरिकी विशेषज्ञ रिचर्ड मर्फी के स्थलरूप वर्गीकरण का उपयोग किया गया था। इसके अनुसार स्थानीय भू-उच्चावच से 100 मीटर ऊँचाई तक उठने वाले स्थलरूपों को पहाड़ी माना गया और पहाड़ियों तथा उनकी सहायक ढालों पर खनन को प्रतिबंधित किया गया था। परंतु इससे काफी नुकसान होने की सम्भावना है अतः इस परिभाषा को भारतीय फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार 30 मीटर किया जाना चाहिए, जिससे अरावली पर्वत श्रृंखला को विस्तृत रूप से संरक्षित किया जा सके।
डॉ. अनुरंजन ने अरावली के महत्व को बतलाते हुए कहा कि भू- वैज्ञानिक उत्पत्ति और विकास के अनुसार अरावली श्रृंखला विश्व की सबसे पुरानी पर्वत प्रणालियों में से एक और भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला है, जो लगभग 2,000 मिलियन वर्ष पूर्व प्री-कैम्ब्रियन युग में अस्तित्व में आई थी।
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