बहुश्रुत जय मुनि, मार्च 18 -- जैनागमों के अनुसार ऋषभदेव अवसर्पिणी काल के उस संधि समय में जन्मे, जब युगल-व्यवस्था चरमरा रही थी, नई व्यवस्था का जन्म नहीं हुआ था। केवल वनों के पत्र-पुष्प-फूलों के भरोसे जीवन यापन करने वाली तत्कालीन मानव जाति न केवल शारीरिक आवश्यकताओं के कारण वन्यजीवी थी, अपितु संस्कार-विचार-आचार की अपेक्षा भी वन्य ही थी। इसलिए वह युग भोग-युग था। ऐसा भोग, जिसके लिए मानव कर्म (परिश्रम) नहीं करता था, तथा जिसकी पूर्ति होने पर 'धर्म' भी नहीं करता था। कर्म और धर्म से विवर्जित जीवन शैली को 'भोग' कहकर प्रभु ऋषभदेव ने अपने जमाने को पहले तो कर्म युग की दिशा प्रदान की, फिर धर्म युग की। तन और मन की जरूरतों की पूर्ति कर्म से, आत्मा के गुणों की संपूर्ति धर्म से करवाने वाले ऋषभदेव के माता-पिता का नाम महदेवी और नाभिराय था। उन्हें जन्म से ही ...
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