सीतापुर राजीव गुप्ता, अप्रैल 28 -- 'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग मिलते गए और कारवां बनता गया'। महर्षि दधीचि की तपस्थली में जिस तेजी से नेत्रदान की परंपरा बढ़ती जा रही है। उससे एक बार फिर इस शेर की सार्थकता सच साबित हो गई है। 'नेत्रदान-महादान', सीतापुर के बाशिंदों के लिए यह महज एक नारा नहीं है। यहां के लोग नेत्रदान के महत्व को भली भांति समझ चुके हैं। यही कारण है कि यहां लोगों ने इस अभियान को हाथों-हाथ लिया है। जिले के बाशिंदे अब जागरूकता की रोशनी से दूसरों के जीवन में खुशियां बिखेरने में पीछे नहीं हैं। बीते 17 सालों में नेत्रदान की इस मुहिम में सभी धर्मों और वर्गों के लोग शामिल हुए। क्या हिंदू, क्या सिख, क्या जैन हर कोई इस अभियान में शामिल होने को आतुर दिखा। बीते वर्षों में इस अभियान में कदम-कदम पर 'दधीचि' मिलते रहे और अभियान ...