शामली, अक्टूबर 25 -- शहर के जैन धर्मशाला में शुक्रवार को मुनि श्री 108 विव्रत सागर ने मानव जीवन में चित्त की अद्वितीय महत्ता, चरित्र निर्माण की आवश्यकता एवं कर्मों के सिद्धांत का वर्णन किया। मुनिराज विव्रत सागर ने कहा कि मानव योनि में जन्म लेना और दो हाथ-दो पैर प्राप्त करना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि नहीं है, बल्कि चित्त का प्राप्त होना ही सच्ची उपलब्धि है। उन्होंने कहा कि एक से चार इंद्रिय वाले जीव चित्त रहित होते हैं, जबकि मनुष्य के पास चित्त का होना उसे कर्मों से मुक्ति की दिशा में अग्रसर करता है। मुनिराज ने कहा कि अनादि काल से कर्मों की संतति चली आ रही है। पुराने कर्म नष्ट होते हुए भी नए कर्मों को जन्म देते रहते हैं। आज मानव का चित्त सांसारिक चिंताओं जैसे संपत्ति, व्यापार आदि में उलझा हुआ है, जिससे आत्मा कर्मों के बंधन में और अधिक फंसती...
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