पूर्णिया, दिसम्बर 8 -- एक दौर था जब बिहार और खासकर कोसी और सीमांचल क्षेत्र में पाट की खेती को किसानों की खुशहाली का आधार माना जाता था। किसान बड़े पैमाने पर पाट उगाते थे और उसे कोलकाता के बाजारों में बेचकर अच्छा खासा मुनाफा कमाते थे। पाट की बिक्री से ही कई किसानों ने अपनी बेटियों की शादी धूमधाम से की और पक्के मकान भी बनवाए, लेकिन बदलते समय के साथ अब पाट की खेती किसानों के लिए घाटे का सौदा बनती जा रही है। पाट से बनने वाला बोरा पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भी बेहद जरूरी था। प्लास्टिक के बोरे के मुकाबले पाट से बने बोरे अधिक टिकाऊ और जैविक होते हैं, जो मिट्टी में आसानी से गल जाते हैं। इस तरह पाट की खेती न केवल किसानों की आय का स्रोत थी बल्कि पर्यावरण संतुलन के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। पाट की ठाल या संठी का उपयोग सिर्फ खेती तक सीमित...