पूर्णिया, अगस्त 8 -- प्रस्तुति: ओमप्रकाश अम्बुज, मणिकांत रमण कभी हमारी सांस्कृतिक विरासत और ग्रामीण जीवन की पहचान रहे बांस से बने डलिया, झपिया और दउरी अब धीरे-धीरे गुमनामी में खोते जा रहे हैं। यह महज एक हस्तकला नहीं, बल्कि मल्लिक समाज की पीढ़ियों से चली आ रही जीविका और परंपरा थी। इन हाथों ने वर्षों तक समाज की जरूरतों को साधा, लेकिन जब प्लास्टिक के सस्ते सामान ने बाजार पर कब्जा जमाया तो इनका रोजगार भी छिन गया। न तो सरकार ने ध्यान दिया, न समाज ने आवाज सुनी। आज हालात यह हैं कि फुटपाथ ही इनका घर और रोजगार दोनों बन गया है। अब समय आ गया है कि इस पारंपरिक हस्तकला को संरक्षित किया जाए और इन कारीगरों को पहचान, सम्मान और स्थायी रोजगार मिले। कभी पूजा-पाठ, विवाह और पारंपरिक आयोजनों की शान मानी जाने वाली बांस से बनी डलिया, झपिया और दउरी अब हमारी संस्क...
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