भागलपुर, दिसम्बर 21 -- - प्रस्तुति : ओमप्रकाश अम्बुज कटिहार की सड़कों पर सुबह से शाम तक गूंजते ठेले सिर्फ सामान नहीं ढोते, वे शहर की रफ्तार और सांसों को चलाए रखते हैं। भरे बोरे कंधों पर लादे, पसीने में भीगे ठेला चालक और पलदार इस बाजार की अनदेखी रीढ़ हैं। इनके श्रम से दुकानें सजती हैं, घरों तक जरूरतें पहुंचती हैं और मंडियों की रौनक बरकरार रहती है। पर अफसोस, जिन पहियों पर शहर का पूरा अर्थचक्र घूमता है, उनकी अपनी जिंदगी ठहराव में फंसी है। "रोज कमाओ-रोज खाओ" की जकड़ में ये लोग हर दिन पेट और जिम्मेदारियों के बीच जूझते हैं। गर्मी, बारिश या ठंड-किसी मौसम का असर इनके काम पर नहीं रुकता। थकान, दर्द और असुरक्षा के बावजूद ठेला खींचते ये मजदूर शहर की गति थमने नहीं देते। फिर भी उनकी मेहनत का मूल्य आज भी मामूली दिहाड़ी और अनिश्चित भविष्य तक सीमित है। कट...