भागलपुर, जुलाई 10 -- प्रस्तुति: ओमप्रकाश अम्बुज, मोना कश्यप गंगा की गोद में बसा मनिहारी कभी सिर्फ एक नगर नहीं था, वह एक एहसास था - संस्कृति, व्यापार, मेल-मिलाप और मिट्टी की खुशबू से भरा हुआ। रविवार और गुरुवार के दिन लगने वाली हाट न केवल हजारों लोगों की आजीविका का साधन थी, बल्कि दिलों को जोड़ने वाली परंपरा भी थी। आज वह हाट बंद है, स्मृतियां बिखरी हैं और विरासत विलुप्त होने के कगार पर है। नावों से आने वाले लोगों की आवाजें, मिट्टी के खिलौनों की रौनक और मसालों की खुशबू अब केवल यादों में रह गई हैं। मनिहारी आज फिर से अपने सुनहरे अतीत की वापसी की आस में है। यह बातें हिन्दुस्तान के 'बोले कटिहार' संवाद के दौरान उभर कर सामने आईं। गंगा के किनारे बसा मनिहारी कभी सिर्फ एक नगर नहीं था, बल्कि यह संस्कृति, व्यापार, आस्था और इतिहास की एक चलती-फिरती पहचान ...
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