शामली, अक्टूबर 24 -- शहर के जैन धर्मशाला में गुरुवार को मुनि श्री 108 विव्रत सागर ने आत्मा में परमात्मा को देखने का महत्व बताया। मुनिश्री ने पुण्य और पाप के अंतर को सरल उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट किया और कहा कि वास्तविक साधना तब शुरू होती है जब मनुष्य दूसरों की आत्मा में भी परमात्मा का दर्शन करने लगता है। मुनिश्री ने कहा कि पुण्य और पाप में यह विवाद हुआ कि कौन श्रेष्ठ है। प्रभु ने निर्णय दिया कि पाप बड़ा है, क्योंकि पुण्य को हर कोई चाहता है, परंतु पाप को कोई नहीं चाहता, फिर भी लोग पाप करते हैं। यह बताता है कि पुण्य को अपनाना कठिन है, जबकि राग और मोह सहज रूप से मनुष्य पर हावी हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि गुरु और मित्र से मिलने में भावनात्मक अंतर यह दर्शाता है कि लौकिक राग कितना गहरा है और आध्यात्मिक राग कितना सतही। मित्र से मिलते ही हम गल...